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प्रेमचन्द की कहानियाँ 7

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9768
आईएसबीएन :9781613015056

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सातवाँ भाग


पानी पी कर पौधे की मुरझायी हुई पत्तियाँ हरी हो गयीं, मानो उनकी आँखें खुल गयी हों।

कुँवर ने पूछा- यह पौधा क्या तुमने लगाया है, चंदा ?

चंदा ने पौधों को एक सीधी लकड़ी से बाँधते हुए कहा- हाँ, उसी दिन तो, जब तुम यहाँ आये। यहाँ पहले मेरी गुड़ियों का घरौंदा था। मैंने गुड़ियों पर छाँह करने के लिए अमोला लगा दिया था। फिर मुझे इसकी याद नहीं रही। घर के काम-धन्धों में भूल गयी। जिस दिन तुम यहाँ आये, मुझे न-जाने क्यों इस पौधे की याद आ गयी। मैंने आ कर देखा, तो वह सूख गया था। मैंने तुरन्त पानी ला कर इसे सींचा, तो कुछ-कुछ ताजा होने लगा। तब से इसे सींचती हूँ। देखो, कितना हरा-भरा हो गया है।

यह कहते-कहते उसने सिर उठा कर कुँवर की ओर ताकते हुए कहा- और सब काम भूल जाऊँ; पर इस पौधे को पानी देना नहीं भूलती। तुम्हीं इसके प्राणदाता हो। तुम्हीं ने आ कर इसे जिला दिया, नहीं तो बेचारा

सूख गया होता। यह तुम्हारे शुभागमन का स्मृति-चिह्न है। जरा इसे देखो। मालूम होता है, हँस रहा है। मुझे तो जान पड़ता है कि यह मुझसे बोलता है। सच कहती हूँ, कभी यह रोता है, कभी हँसता है, कभी रूठता है; आज तुम्हारा लाया हुआ पानी पा कर यह फूला नहीं समाता। एक-एक पत्ता तुम्हें धन्यवाद दे रहा है।

कुँवर को ऐसा जान पड़ा, मानो वह पौधा कोई नन्हा-सा क्रीड़ाशील बालक है। जैसे चुंबन से प्रसन्न हो कर बालक गोद में चढ़ने के लिए दोनों हाथ फैला देता है, उसी भाँति यह पौधा भी हाथ फैलाये जान पड़ा। उसके एक-एक अणु में चंदा का प्रेम झलक रहा था। चंदा के घर में खेती के सभी औजार थे। कुँवर एक फावड़ा उठा लाये और पौधे का एक थाला बना कर चारों ओर ऊँची मेंड़ उठा दी। फिर खुरपी लेकर अंदर की मिट्टी को गोंड़ दिया। पौधा और भी लहलहा उठा।

चंदा बोली- कुछ सुनते हो, क्या कह रहा है ?

कुँवर ने मुस्करा कर कहा- हाँ, कहता है, अम्माँ की गोद में बैठूँगा।

चंदा- नहीं, कह रहा है, इतना प्रेम करके फिर भूल न जाना।

मगर कुँवर को अभी राज-पुत्र होने का दंड भोगना बाकी था। शत्रुओं को न-जाने कैसे उनकी टोह मिल गयी। इधर तो हितचिंतकों के आग्रह से विवश हो कर बूढ़ा कुबेरसिंह चंदा और कुँवर के विवाह की तैयारियाँ कर रहा था, उधर शत्रुओं का एक दल सिर पर आ पहुँचा। कुँवर ने उस पौधे के आस-पास फूल-पत्ते लगा कर एक फुलवाड़ी-सी बना दी थी ! पौधे को सींचना अब उनका काम था। प्रात:काल वह कंधो पर काँवर रखे नदी से पानी ला रहे थे, कि दस-बारह आदमियों ने उन्हें रास्ते में घेर लिया। कुबेरसिंह तलवार ले कर दौड़ा; लेकिन शत्रुओं ने उसे मार गिराया। अकेला अस्त्रहीन कुँवर क्या करता? कंधे पर काँवर रखे हुए बोला- अब क्यों मेरे पीछे पड़े हो, भाई ? मैंने तो सब-कुछ छोड़ दिया।

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