कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 8 प्रेमचन्द की कहानियाँ 8प्रेमचंद
|
10 पाठकों को प्रिय 30 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का आठवाँ भाग
उसने ताबूत के पास बैठकर श्रद्धा के काँपते हुए कंठ से प्रार्थना की 'ईश्वर, तू मेरे प्राणों से प्रिय हेलेन को अपनी क्षमा के दामन में ले !' और जब वह ताबूत को कन्धों पर लिये चला, तो उसकी आत्मा लज्जित थी अपनी संकीर्णता पर, अपनी उद्विग्नता पर, अपनी नीचता पर और जब ताबूत कब्र में रख दिया गया, तो वह वहाँ बैठकर न-जाने कब तक रोता रहा। दूसरे दिन रोमनाफ जब फातिहा पढ़ने आया तो देखा, आइवन सिजदे में सिर झुकाये हुए है और उसकी आत्मा स्वर्ग को प्रयाण कर चुकी है।
5. क़ैफ़रे-कर्दार (कर्म-दंड)
आजमगढ़ जिले में सरयू नदी के किनारे एक छोटा-सा मैदान है। उसकी दूसरी तरफ़ एक बहुत बड़ी झील है, जो यहाँ से एक मील पूर्व की तरफ चलकर सरयू नदी से मिल गई है। तीसरी तरफ एक पार होने में कठिन अथाह दलदल है। चौथी तरफ़ नदी के ऊँची-नीची होती हुई एक पतली-सी पगडंडी है, जिसने इस मैदान को दुनिया का एक हिस्सा बना रखा था। इसलिए यह मैदान भौगोलिक परिभाषा में न द्वीप था और न द्वीपनुमा। शायद भूगोल में इसके लिए कोई परिभाषा नहीं है, मगर सचमुच वह एक गैरआबाद, वीरान द्वीप था जो दुनिया से बिलकुल अलग-थलग पड़ा हुआ था। कुछ अरसे से एक अहीर ने इस वीराने को आबाद कर रखा था। नहीं मालूम, जमींदार ने उसे गाँव से निकाल दिया या किसी वजह से इसे आबादी से दूर रहना पड़ा। इस ग़रीब ने इस दलदली स्थान में निवास किया था। यहाँ एक छोटा-सा झोपड़ा, चंद गायें, भैंसे, भेड़-बकरियों के झुंड चरते नज़र आते थे। इस हौसलामंद अहीर ने, जिसे शिवराम कहते थे, एक छोटी-सी किश्ती बना रखी थी, जिस पर बैठकर वह क़रीब के क़स्वे में ऊन, घी और दूध बेचने के लिए जाया करता था। कभी-कभी मछलियों का शिकार भी खेलता। शिवराम को उस वीराने को आबाद करना मुबारक न हुआ। यहाँ आने के थोड़े ही दिनों बाद उसकी बीवी मलेरिया की नजर हो गई। अब उसकी सिर्फ एक लड़की थी, जिसके सर पर गृहस्थी का सारा बोझा था। शिवराम इस ताक़ में था कि कहीं सगाई ठहर जाए तो बेचारी गोरा के सर से यह वला टले, मगर खुदा जाने क्यों, बिरादरी में लोग उसे इज्जत की निगाह से नहीं देखते थे। यही सबब था कि गोरा की उसने अब तक शादी नहीं की थी। यह एक साँवले रंग की, भोली सूरत वाली सुकुमारी थी, जिसे हसीन तो नहीं कह सकते, मगर मन को छलनेवाली जरूर कह सकते हैं। गोरा के लिए यह झोपड़ा कैदखाना से कम न था। सुबह से शाम तक शिवराम या तो मवेशियों के साथ रहता या बाजार करने जाता या मछलियाँ पकड़ता और गोरा सारा दिन अकेली बैठी कभी घर का काम-काज करती, कभी लेटती, कभी उकता कर रोती, मगर झोंपड़े से बाहर उसे निकलने की मुमानियत थी और न वह निकल सकती थी। हाँ, अब इसे क़ैदे-तन्हाई से जल्द रिहाई मिलने वाली थी, क्योंकि गोरा की मँगनी एक नौजवान अहीर से हो गई थी, जो सरयू के लबे-साहिल एक दूसरे गाँव में रहता था, लेकिन जब गोरा सोचती कि मुझे अब यहाँ से जाना पड़ेगा तो उसका दिल बैठ जाता और वह ईश्वर से मनाती कि यह क़ैदे-तन्हाई हमेशा क़ायम रहे।
|