कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 8 प्रेमचन्द की कहानियाँ 8प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का आठवाँ भाग
एक दिन शाम के वक्त गोरा अपने झोंपड़े में बैठी हुई आईने में अपना मुँह देख रही थी। उसकी ससुराल से एक सुर्ख साड़ी उसके लिए आई थी। गोरा ने उसे पहना दिया था और आईने में देख रही थी कि यह मुझ पर खिलती है या नहीं। कभी वह आँचल को आधे सर तक रखती, कभी माथे तक। उसका चेहरा बहुत शगुफ्ता था, क्योंकि खुशरंग साड़ी उसने कभी नहीं पहनी थी और न वह खुद अपनी निगाहों में ऐसी हसीन मालूम हुई थी। उसे अपने भोले-भाले हुस्न का आज कुछ थोड़ा-सा अंदाजा हुआ, और आईने के सामने से हटी तो उसकी आँखों में इत्मीनान और गरूर की झलक मौजूद थी। उसे याद नहीं आता था कि अपने से ज्यादा अच्छी सूरत कभी देखी है या नहीं।
इतने में दरवाजे पर किसी के पाँवों की आहट हुई। उसने समझा, मेरे बाप आ गए हैं। जल्दी से माथा छुपा लिया और आईने को उठाकर चारपाई के नीचे डाल दिया। मगर जब बजाय उसके बाप के एक अजनबी सूरत के नौजवान ने दरवाजा खोलकर कमरे में झाँका तो गोरा के मुँह से एक चीख निकल आई और दिल धड़कने लगा। उसने काँपती हुई आवाज़ से पूछा- ''तुम कौन हो? '' और यह कहकर हाथ में एक सोटा लेकर खड़ी हो गई।
नौजवान कमरे के अंदर चला आया और बहुत नम्र लहजे से बोला- ''तुम डरो मत। मैं तुम से कुछ नहीं बोलूँगा। मुझे बहुत भूख लगी है। कुछ खाने को दो। भूख से मरा जाता हूँ।''
गोरा- ''तुम कौन हो? कहाँ से आए हो?''
नौजवान- ''एक बदनसीब आदमी हूँ और कौन हूँ। दिन-भर से जंगल की खाक छान रहा हूँ। सैकड़ों आदमी मेरी तलाश में घूम रहे हैं। गाँव-गाँव मेरे खून का प्यासा हो रहा है। कल रात को हरदतपुर में एक बड़ा डाका पड़ा। वहाँ का नंबरदार इस डाके में मारा गया। अब मुझ गरीब पर लोग शक कर रहे हैं। मगर मैं ईश्वर से कहता हूँ कि मैं इस गुनाह में बिलकुल नहीं शरीक था। यह मेरे दुश्मनों की शरारत है। इस वक्त मुझे किस्मत यहाँ ले जाई। मगर यहाँ से निकलने का कोई रास्ता नहीं मिलता। जिधर जाता हूँ पानी और दलदल के सिवा कुछ नहीं सूझता। अगर उसी रास्ते से लौट जाऊँ जिधर से आया हूँ तो जरूर गिरफ्तार हो जाऊँगा, क्योंकि लोग मेरी घात में लगे हुए हैं। तुम मुझे कुछ खाने को दे दो और तब मुझे यहाँ से जान लेकर भाग निकलने का कोई रास्ता बता दो। तुम्हारे दिल में रहम है। ईश्वर तुम्हें इस नेकी का बदला देंगे।''
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