कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 8 प्रेमचन्द की कहानियाँ 8प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का आठवाँ भाग
गोरा- ''इसने ज़बरदस्ती खोल ली। मैं तो मना करती रही।''
गोवर्धन- ''तुम्हें इसने मारा तो नहीं?''
गोरा ज़बान से नहीं बोली। मगर उसकी धीमी-धीमी सिसकियाँ सुनाई दीं। गोवर्धन से अब सब्र न हो सका। उसने वही डंडा उठा लिया जो डाकू ने गोरा से छीना था और डाकू के पीछे दौड़ा। डाकू जान बचाकर भागा और उस तरफ़ जिधर अथाह दलदल था तेजी से भागता हुआ चला गया। सुबह को जब लोगों ने जाकर देखा तो दलदल में उन्हें उन्हीं पैरों के निशान नजर आए। इसके बाद एक गड्ढा-सा दिखाई दिया। लोग समझ गए कि यही उस डाकू की क़ब्र है। जैसी करनी वैसी भरनी।
6. कोई दुःख न हो तो बकरी खरीद लो
उन दिनों दूध की तकलीफ थी। कई डेरी फर्मों की आजमाइश की, अहीरों का इम्तहान लिया, कोई नतीजा नहीं। दो-चार दिन तो दूध अच्छा, मिलता फिर मिलावट शुरू हो जाती। कभी शिकायत होती दूध फट गया, कभी उसमें से नागवार बू आने लगी, कभी मक्खन के रेजे निकलते। आखिर एक दिन एक दोस्त से कहा- भाई, आओ साझे में एक गाय ले लें, तुम्हें भी दूध का आराम होगा, मुझे भी। लागत आधी-आधी, खर्च आधा-आधा, दूध भी आधा-आधा। दोस्त साहब राजी हो गए। मेरे घर में जगह न थी और गोबर वगैरह से मुझे नफरत है। उनके मकान में काफी जगह थी इसलिए प्रस्ताव हुआ कि गाय उन्हीं के घर रहे। इसके बदले में उन्हें गोबर पर एकछत्र अधिकार रहे। वह उसे पूरी आजादी से पाथें, उपले बनाएं, घर लीपें, पड़ोसियों को दें या उसे किसी आयुर्वेदिक उपयोग में लाएं, इकरार करनेवाले को इसमें किसी प्रकार की आपत्ति या प्रतिवाद न होगा और इकरार करनेवाला सही होश-हवास में इकरार करता है कि वह गोबर पर कभी अपना अधिकार जमाने की कोशिश न करेगा और न किसी का इस्तेमाल करने के लिए आमादा करेगा।
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