कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 8 प्रेमचन्द की कहानियाँ 8प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का आठवाँ भाग
‘बच्चे कहां तक पियेंगे बहूजी। दो सेर दूध अच्छा न होता था, इस मारे नहीं लाया।’
मुझे रात को वह मर्मान्तक घटना याद आ गयी।
मैंने कहा- दूध लाओ या न लाओ, तुम्हारी खुशी, लेकिन बकरी को इधर न लाना।
उस दिन से न वह गड़रिया नजर आया न वह बकरी, और न मैंने पता लगाने की कोशिश की। लेकिन देवीजी उसके बच्चों को याद करके कभी-कभी आंसू बहा रोती हैं।
7. कौशल
पंडित बालकराम शास्त्री की धर्मपत्नी माया को बहुत दिनों से एक हार की लालसा थी और वह सैकड़ों ही बार पंडितजी से उसके लिए आग्रह कर चुकी थीं, किन्तु पंडितजी हीला-हवाला करते रहते थे। यह तो साफ़-साफ़ न कहते थे कि मेरे पास रुपये नहीं हैं - इससे उनके पराक्रम में बट्टा लगता था - तर्कनाओं की शरण लिया करते थे।
गहनों से कुछ लाभ नहीं, एक तो धातु अच्छी नहीं मिलती, उस पर सोनार रुपए के आठ-आठ आने कर देता है, और सबसे बड़ी बात यह कि घर में गहने रखना चोरों को नेवता देना है। घड़ी-भर के श्रृंगार के लिए इतनी विपत्ति सिर पर लेना मूर्खों का काम है।
बेचारी माया तर्क-शास्त्र न पढ़ी थी, इन युक्तियों के सामने निरुत्तर हो जाती थी। पड़ोसिनों को देख-देखकर उसका जी ललचाया करता था, पर दुःख किससे कहे ? यदि पंडितजी ज्यादा मेहनत करने के योग्य होते तो यह मुश्किल आसान हो जाती। पर वे आलसी जीव थे, अधिकांश समय भोजन और विश्राम में व्यतीत किया करते थे। पत्नीजी की कटूक्तियाँ सुननी मंजूर थीं, लेकिन निद्रा की मात्रा में कमी न कर सकते थे।
एक दिन पंडितजी पाठशाला से आये तो देखा कि माया के गले में सोने का हार विराज रहा है। हार की चमक से उसकी मुख-ज्योति चमक उठी थी। उन्होंने उसे कभी इतनी सुन्दर न समझा था। पूछा- यह हार किसका है?
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