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प्रेमचन्द की कहानियाँ 8

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9769
आईएसबीएन :9781613015063

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का आठवाँ भाग


माया बोली- पड़ोस में जो बाबूजी रहते हैं, उन्हीं की स्त्री का है। आज उनसे मिलने गयी थी, यह हार देखा, बहुत पसंद आया। तुम्हें दिखाने के लिए पहन कर चली आई। बस, ऐसा ही एक हार मुझे बनवा दो।

पंडित- दूसरे की चीज नाहक माँग लायीं। कहीं चोरी हो जाए तो हार तो बनवाना ही पड़े, उपर से बदनामी भी हो।

माया-तो ऐसा ही हार लूगी। 20 तोले का है।

पंडित- फिर वही जिद।

माया- जब सभी पहनती हैं, तो मैं ही क्यों न पहनूं?

पंडित- सब कुएं में गिर पड़ें तो तुम भी कुएं में गिर पड़ोगी। सोचो तो, इस वक्त इस हार के बनवाने में 600 रुपये लगेंगे। अगर 1 रु० प्रति सैकड़ा ब्याज रख लिया जाए तो 5 वर्ष मे 600 रू० के लगभग 1000 रु० हो जायेगें। लेकिन 5 वर्ष में तुम्हारा हार मुश्किल से 300 रू० का रह जायेगा। इतना बड़ा नुकसान उठाकर हार पहनने से क्या सुख? यह हार वापस कर दो, भोजन करो और आराम से पड़ी रहो। यह कहते हुए पंडितजी बाहर चले गये।

रात को एकाएक माया ने शोर मचाकर कहा- चोर, चोर, हाय, घर में चोर, मुझे घसीटे लिए जाते हैं।

पंडितजी हकबका कर उठे और बोले- कहाँ, कहाँ? दौड़ो,दौड़ो।

माया- मेरी कोठारी में गया है। मैनें उसकी परछाईं देखी।

पंडित- लालटेन लाओ, जरा मेरी लकड़ी उठा लेना।

माया- मुझसे तो डर के उठा नहीं जाता।

कई आदमी बाहर से बोले- कहाँ है पंडितजी, कोई सेंध पड़ी है क्या?

माया- नहीं, नहीं, खपरैल पर से उतरे हैं। मेरी नींद खुली तो कोई मेरे ऊपर झुका हुआ था। हाय राम! यह तो हार ही ले गया! पहने-पहने सो गई थी ! मुए ने गले से निकाल लिया। हाय भगवान !

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