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प्रेमचन्द की कहानियाँ 8

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9769
आईएसबीएन :9781613015063

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का आठवाँ भाग


माया- कह दूँगी घर में चोरी हो गयी। क्या जान लेंगी? अब उनके लिए कोई चोरी थोड़े ही करने जायेगा।

पंडित तुम्हारे घर से चीज गयी, तुम्हें देनी पड़ेगी। उन्हें इससे क्या प्रयोजन कि चोर ले गया या तुमने उठाकर रख लिया। पतियाएँगी ही नहीं।

माया- तो इतने रूपये कहाँ से आएँगे?

पंडित- कहीं न कहीं से तो आएँगे ही, नहीं तो लाज कैसे रहेगी, मगर की तुमने बड़ी भूल।
माया- भगवान् से मँगनी की चीज भी न देखी गयी। मुझे काल ने घेरा था, नहीं तो इस घड़ी भर गले में डाल लेने से ऐसा कौन-सा बड़ा सुख मिल गया? मै हूँ ही अभागिनी।
पंडित- अब पछताने और अपने को कोसने से क्या फायदा? चुप हो के बैठो, पड़ोसिन से कह देना, घबराओ नहीं, तुम्हारी चीज़ जब तक लौटा न देंगें, तब तक हमें चैन न आयेगा।

पंडित बालकराम को अब नित्य यही चिंता रहने लगी कि किसी तरह हार बने। यों अगर टाट उलट देते तो कोई बात न थी। पड़ोसिन को सन्तोष ही करना पड़ता, ब्राह्मण से डाँड़ कौन लेता, किन्तु पंडितजी ब्राह्मणत्व के गौरव को इतने सस्ते दामों न बेचना चाहते थे। आलस्य छोड़कर धनोपार्जन में दत्तचित्त हो गये।

छ: महीने तक उन्होंने दिन को दिन और रात को रात नहीं जाना। दोपहर को सोना छोड़ दिया, रात को भी बहुत देर तक जागते। पहले केवल एक पाठशाला में पढ़ाया करते थे। इसके सिवा वह ब्राह्मण के लिए खुले हुए एक सौ एक व्यवसायों में सभी को निंदनीय समझते थे। अब पाठशाला से आकर संध्या समय एक जगह ‘भगवत् की कथा' कहने जाते, वहाँ से लौट कर 11-12 बजे रात तक जन्म कुण्डलियाँ, वर्ष-फल आदि बनाया करते। प्रात:काल मन्दिर में ‘दुर्गा जी का पाठ' करते। माया पंडितजी का अध्यवसाय देखकर कभी-कभी पछताती कि कहाँ-से-कहाँ मैंने यह विपत्ति सिर पर ली। कहीं बीमार पड जायें तो लेने के देने पड़ें। उनका शरीर क्षीण होते देखकर उसे अब यह चिनता व्यथित करने लगी। यहाँ तक कि पाँच महीने गुज़र गए।

एक दिन संध्या समय वह दिया-बत्ती करने जा रही थी कि पंडितजी आये, जेब से पुड़िया निकाल कर उसके सामने फेंक दी और बोले- लो, आज तुम्हारे ऋण से मुक्त हो गया।
माया ने पुड़िया खोली, तो उसमें सोने का हार था, उसकी चमक-दमक, उसकी सुन्दर बनावट देखकर उसके अन्त:स्थल में गुदगदी-सी होने लगी। मुख पर आन्नद की आभा दौड़ गई। उसने कातर नेत्रों से देखकर पूछा- खुश होकर दे रहे हो या नाराज होकर ?

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