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प्रेमचन्द की कहानियाँ 9

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9770
आईएसबीएन :9781613015070

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का नौवाँ भाग


जादोराय को पुत्र की यह कठोरता अप्रिय मालूम हुई। वे चाहते थे कि इस वक्त बिरादरी के लोग जमा हैं, उनके सामने किसी तरह समझौता हो जाय, फिर कौन देखता है कि हम उसे किस तरह रखते हैं? चिढ़कर बोले– इतनी बात तो तुम्हें माननी ही पड़ेगी।

साधोराय इस रहस्य को न समझ सका। बाप की इस बात में उसे निष्ठुरता की झलक दिखाई पड़ी। बोला– मैं आपका लड़का हूँ। आपके लड़के की तरह रहूँगा। आपके भक्ति और प्रेम की प्रेरणा मुझे यहाँ तक लायी है। मैं अपने घर में रहने आया हूँ अगर यह नहीं है तो इसके सिवा मेरे लिए इसके और कोई उपाय नहीं है कि जितनी जल्दी हो सके, यहाँ से भाग जाऊँ। जिनका खून सफेद है, उनके बीच में रहना व्यर्थ है।

देवकी ने रोकर कहा– लल्लू मैं अब तुम्हें न जाने दूँगी।

साधो की आँखें भर आयीं, पर मुस्कराकर बोला– मैं तो तुम्हारी थाली में खाऊँगा।

देवकी ने उसे ममता और प्रेम की दृष्टि से देखकर कहा– मैंने तो तुझे छाती से दूध पिलाया है, तू मेरी थाली में खायगा तो क्या? मेरा बेटा ही तो है, कोई और तो नहीं हो गया!

साधो इन बातों को सुनकर मतवाला हो गया। इनमें कितना स्नेह कितना अपनापन था। बोला– माँ, आया तो मैं इसी इरादे से था कि अब कहीं न जाऊँगा,  लेकिन बिरादरी ने मेरे कारण यदि तुम्हें जातिच्युत कर दिया, तो मुझसे न सहा जाएगा। मुझसे इन गँवारों का कोरा अभिमान न देखा जाएगा। इसलिए इस वक्त मुझे जाने दो। जब मुझे अवसर मिला करेगा तो तुम्हें देख जाया करूंगा। तुम्हारा प्रेम मेरे चित्त से नहीं जा सकता। लेकिन यह असम्भव है कि मैं इस घर में रहूँ और अलग खाना खाऊँ, अलग बैठूँ। इसके लिए मुझे क्षमा करना।

देवकी घर में से पानी लायी। साधो मुँह धोने लगा। शिवगौरी ने माँ का इशारा पाया, तो डरते-डरते साधो के पास गयी, साधो को आदरपूर्वक दंडवत की। साधो ने पहले उन दोनों को आश्चर्य से देखा, फिर अपनी माँ को मुस्कराते देख समझ गया। दोनों लड़को को छाती से लगा लिया और तीनों भाई-बहिन प्रेम से हँसने-खेलने लगे। मां खड़ी यह दृश्य देखती थी और उमंग से फूली न समाती थी।

जलपान करके साधो ने बाईसिकल सँभाली और माँ-बाप के सामने सिर झुकाकर चल खड़ा हुआ– वहीं, जहाँ से तंग होकर आया था; उसी क्षेत्र में,जहाँ अपना कोई न था।

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