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प्रेमचन्द की कहानियाँ 10

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9771
आईएसबीएन :9781613015087

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दसवाँ भाग


जोतिंद्र- ''समझाया क्यों नहीं, घंटों बैठे माथापच्ची करते रहे, मगर जब कुछ उनके ख्याल में आए और ऐसे अल्पज्ञ नहीं हैं कि हमको उनके समझाने की जरूरत हो। क्या वह नहीं जानते कि यह ऐसे नाजुक मौके पर उनका साफ़-साफ़ न कहना जैसे खतरनाक परिणाम पैदा करेगा, मगर इस वक्त वह किसी की नहीं सुनते। कहते हैं, वला से, मैं चंद सालों के लिए देश-निष्कासित हो जाऊँगा। जलावतनी और कैद के लिए आमादा हैं, मगर मंगल को कहाँ थे, यह नहीं बताते। इसलिए मैं तुम्हारे पास आया हूँ कि शायद कुछ तुम्हें मालूम हो! कुछ मालूम है? वह ज़्यादातर कहाँ आते-जाते हैं?''

सरला ने सिर हिलाकर जवाब दिया- ''मैंने उन्हें कहीं आते-जाते नहीं देखा। मैं तो अब तक इसी ख्याल से खुश थी कि मंगल को चार वजे वह जरूर कचहरी में रहे होंगे। मेरी समझ में कुछ नहीं आता। आखिर वह क्यों खामोश हैं? क्या समझे हुए हैं? जरा मुझे उनके पास ले चलो, शायद वह मुझसे कुछ अपने दिल की बात कहें। जरूर कहेंगे, मैं उन्हें समझाऊँगी। मुझे यकीन है कि मैं उनकी जबान से हक़ीक़त-हाल सुन लूँगी। वह मेरी दरखास्त को रद्द नहीं कर सकते। बस मुझे उनके पास ले 'चलो।'' सरला का गला भर आया।

जोतिंद्र तसल्ली देनेवाले लहजे में बोले- ''मेरा भी यही ख्याल है कि शायद तुमसे वह कुछ बतलाएँ। इसीलिए मैं तुम्हारे पास आया था, मगर अब रात ज्यादा हो गई है और इस वक्त उनसे मुलाक़ात करने की कोशिश फिजूल है। मजिस्ट्रेट की इजाजत मिलनी मुश्किल होगी। मैं कल तुम्हें वहाँ ले चलूँगा। ईश्वर ने चाहा तो सब अच्छा ही होगा। हाय, यह क्या? दिल को ढारस दो, घबराने की कोई बात नहीं है।''

सरला की आँखों में आँसू उमड़े हुए थे, मगर उसने जब्त किया और जोतिन से हाथ मिलाते हुए बोली- ''जोतिन, तुम्हारी इन इनायतों का शुक्रिया अदा करने के लिए मेरी ज़बान में शब्द नहीं हैं, मगर मैं इन्हें विस्मृत नहीं कर सकती।''

सरला की आवाज़ फिर रुक गई। वह कैसी खुश-खुश जीने से उतरी थी। धीरेन की वापसी की उम्मीद ने उसके चेहरे को रोशन कर दिया था, मगर अब इस पर निराशा का पीलापन छाया हुआ था। जोतिन बाबू आहिस्ता-आहिस्ता फ़िक्रमंद कमरे से बाहर चले गए। वह सोचते जाते थे- ग़रीब! अभी उसे क्या खबर कि क्या बीतने वाली है। काश! वह ज़ालिम अपनी ज़बान से कुछ कह देता, मगर तब भी अजीब गोलमाल का मामला है।

दस बज गए थे। सरला ने कुछ नहीं खाया। निवाले मुँह से बाहर निकले आते थे। वह पलंग पर गई, मगर नींद न आई थी। मेज के सामने अखबार लेकर बैठी, मगर अखबार हाथ में था और आँखें खिड़की की तरफ़। तब वह उठकर टहलने लगी।

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