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प्रेमचन्द की कहानियाँ 10

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9771
आईएसबीएन :9781613015087

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दसवाँ भाग


बहुत देर तक सोचने के बाद सरला इस नतीजे पर पहुँची- ''मैं अब इनका दामन छोड़ दूँगी। इसके सिवा मेरे लिए अब और कोई रास्ता नहीं है। मैंने अब तक अनजाने में उन्हें बलपूर्वक बंधन में रखा है। अब मैं उन्हें छोड़ दूँगी। उनका गला छूट जाएगा। उनकी ज़िंदगी आराम से गुजरेगी। ईश्वर करे वह हमेशा खुश रहें, प्रसन्न एवं सन्तुष्ट हों। उन्हें खुश देखकर मैं भी खुश हो लिया करूँगी।''

इन्हीं ख्यालात में दस बज गए। सरला अब तक वहीं बैठी हुई थी। यकायक एक गाड़ी की आवाज़ उसके कानों में आई। उसने खिड़की से झाँककर देखा धीरेन बैठे हुए थे। सरला का कलेजा धड़कने लगा, मगर वह बेजान लाश की तरह बैठी रही। जीने पर क़दमों की आवाज़ सुनाई दी और जरा देर में धीरेन कमरे में दाखिल हुए। सरला अब भी कुछ न बोली। उसे अल्फाज ही न मिले। धीरेन ने उसके पास आकर प्रेमालिंगन में लेना चाहा और बोले- ''क्यों सरला, तुम मेरी खातिर बहुत परेशान थीं।''

सरला ने मुँह फेरा और हट गई। धीरेन ने कुछ खयाल न किया। कहने लगे- ''पुलिस वालों ने कैसी हिमाक़ात की! खैर, जो कुछ हुआ, वह हुआ। किसी तरह चैन की जगह में तो पहुँचे। रात-भर मुसीबत में फँसा रहा। सरला खामोश उनके चेहरे की तरफ़ ताकती रही। कैसी धोखे की बातें हैं। धीरेन के बर्ताव में कोई फ़र्क़ न था। वही बेतकल्लुफ़ी, वही आज़ादी गोया कुछ हुआ ही नहीं। सरला ज्यादा सहनशील न हो सकी। कठोर लहजे में बोली- ''तुम यहाँ क्यों आए हो?''

धीरेन ने आश्चर्यजनक लहजे में कहा- ''सरला, यह कैसी बातें करती हो? अपने घर के सिवा और कहाँ जाता? तुम मेरे आने से खुश नहीं मालूम होतीं। क्यों, क्या बात हुई?''

सरला- ''अभी उनसे मुलाक़ात की या नहीं?''

धीरेन- ''किससे? तुम्हारा मतलब मैं नहीं समझा।''

सरला- 'धीरेन, अब यह जानकर अनजान बनना मत जताओ। अब चालाकियों का मौका नहीं हैं, बेहतर है कि हममें सफ़ाई के साथ गुफ्तगू हो जाए। मुझ पर तुम्हारी सारी बातें रोशन हो गई हैं। एक खत मेरी नज़र से गुजर चुका है, जो मुझे मेज के नीचे गिरा हुआ मिला। यह खत मैंने तुम्हारी माशूका को दिखाया ओर गालिबन उसने उसे मजिस्ट्रेट के यहां पेश कर दिया। इसलिए अब मुझसे छल-कपट करने की जरूरत नहीं। मैं तुम्हारी खुशी में बाधक नहीं होना चाहती। मैं तुम्हें शौक से जीवन-सुख उठाने के लिए आजादी देती हूँ। मुझे अफ़सोस है कि यह बातें मुझे और पहले क्यों न मालूम हो गईं वरना तुम्हें इतने अरसे तक बंधन में न रहना पड़ता।''

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