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प्रेमचन्द की कहानियाँ 10

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9771
आईएसबीएन :9781613015087

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दसवाँ भाग


भगीरथ ने कुर्सी पर बैठकर कहा- ''पहले आराम से बैठिए, पान खाइए, तब वह बात भी होगी। मैं आपका मतलब समझ गया। बात सोलहों आने ठीक है।''

''तो फिर जल्दी कीजिए, रात हो ही गई है-कौन है?''

भगीरथ ने अबकी गंभीर होकर कहा- ''वही जो सबसे प्यारा मेरा मित्र, मेरे जीवन का आधार, मेरा सर्वस्व, बेटे से भी प्यारा, स्त्री से भी निकट, मेरे 'आनंद' की मृत्यु हो गई। एक बालक का जन्म हुआ, पर मैं इसे आनंद का विषय नहीं, शोक की बात समझता हूँ। आप लोग जानते हैं, मेरे दो बालक मौजूद हैं। उन्हीं का पालन मैं अच्छी तरह नहीं कर सकता। दूध भी कभी नहीं पिला सकता, फिर इस तीसरे बालक के जन्म पर मैं आनंद कैसे मनाऊँ? इसने मेरे सुख और शांति में बड़ी भारी बाधा डाल दी। मुझ में इतनी सामर्थ्य नहीं कि इसके लिए दाई रख सकूँ। माँ इसको खिलाए, इनका पालन करे या घर के दूसरे काम करे? फ़र्ज़ यह होगा कि मुझे सब काम छोड़कर इसकी सुश्रूषा करनी पड़ेगी। दस-पाँच मिनट जो मनोरंजन या सैर में जाते थे, अब इसके सत्कार की भेंट होंगे। मैं इसे विपत्ति समझता हूँ और इसीलिए इस जन्म को गमी कहता हूँ। आप लोगों को कष्ट हुआ। क्षमा कीजिए। आप लोग गंगा-स्नान के लिए तैयार होकर आए। चलिए, मैं भी चलता हूँ। अगर शव को कंधे पर रखकर चलना ही अभीष्ट हो, तो मेरे ताश और चौसर को लेते चलिए। इन्हें चिता में जला देंगे। वहाँ मैं गंगाजल हाथ में लेकर प्रतिज्ञा करूँगा कि अब ऐसी महान मूर्खता फिर न करूँगा।''

हम लोगों ने खूब क़हक़हे मारे, दावत खाई और घर चले आए, पर भगीरथ प्रसाद का कथन अभी तक मेरे कानों में गूँज रहा है।

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5. गरीब की हाय

मुंशी रामसेवक भौंहे चढ़ाए हुए घर से निकले और बोले- ‘इस जीने से तो मरना भला है।’ मृत्यु को प्रायः इस तरह के जितने निमंत्रण दिये जाते हैं, यदि वह सबको स्वीकार करती, तो आज सारा संसार उजाड़ दिखाई देता।

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