कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 10 प्रेमचन्द की कहानियाँ 10प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दसवाँ भाग
सईद ने कमची लेने को हाथ बढ़ाया, मगर मालूम नहीं, ज़रीना को क्या शुबहा पैदा हुआ, उसने समझा शायद यह कमची को तोड़कर फेंक देंगे। कमची हटा ली और बोली- ''अच्छा, मुझसे यह दगा। तो लो, अब मैं ही हाथों की सफ़ाई दिखाती हूँ।'' ये कहकर उस बेदर्द ने मुझे बेतहाशा कमचियाँ मारना शुरू कीं। मैं दर्द से ऐंठ-ऐंठ कर चीख रही थी। उसके पैरों पड़ती थी, मिन्नतें करती थी। अपनी हरकत पर लज्जित थी, दुआएँ देती थी। पीर और पैगम्बर का वास्ता देती थी, पर उस हत्यारी को जरा भी रहम न आता था। सईद काठ के पुतले की तरह देख रहा था और उसके खून में जोश न आया था। शायद मेरा बड़े-से-बड़ा दुश्मन भी मेरे रोने पर तरस खाता। मेरी पीठ छिलकर लहू-लुहान हो गई, जख्म पर जख्म पड़ते। हर एक प्रहार आग के शोले की तरह बदन पर लगता था। मालूम नहीं, उसने मुझे कितने दुर्रे लगाए। यहाँ तक कि कमची को मुझ पर रहम आ गया। वह फटकर टूट गई। लकड़ी का कलेजा फट गया, मगर इंसान का दिल न पिघला।
मुझे यूँ बरबाद करके तीनों दुष्ट आत्माएँ वहाँ से रुखसत हो गईं। सईद के मुलाजिम ने चलते वक्त मेरी रस्सियाँ खोल दीं, लेकिन मैं कहाँ जाती? उस घर में क्योंकर कदम रखती?
मेरा सारा जिस्म फोड़ा हो रहा था, लेकिन दिल के फफोले उससे कहीं पीड़ाजनक थे। सारा दिल उन फफोलों से पुर गया था। सुंदर अनुभूति की जगह भी बाकी न रही थी। उस वक्त मैं किसी अंधे को कुएँ में गिरते देखती तो मुझे हँसी आती, किसी यतीम का पीड़ादायक रोना सुनती तो उसे मुँह चिढ़ाती। दिल की हालत में एक जबर्दस्त इंक़लाब हो गया था। मुझे गुस्सा न था। इस इंतहा की जिल्लत ने इंतक़ाम की ख्वाहिश को भी फना कर दिया था। हालाँकि मैं चाहती तो क़ानूनन सईद को शिकंजे में ला सकती थी। उसे दाने-दाने के लिए तरसा सकती थी, लेकिन ये बेहुरमती, ये बेआबरुई, ये विनाशक प्रतिशोध के दायरे-असर से खारिज थे। बस, सिर्फ़ एक हिस बाकी थी और वह हिस जिल्लत था। मैं हमेशा के लिए जलील हो गई। क्या यह दाग किसी तरह मिट सकता था? हरगिज़ नहीं। हाँ, वह छुपाया जा सकता था और उसकी एक ही सूरत थी कि जिल्लत के कालिमायुक्त कार्य में गिर पड़ूँ, ताकि सारे पैरहन की स्याही इस काले दाग को छुपा दे। क्या इस घर से बयाबाँ अँच्छा नहीं, जिसकी टूट गई हो गई हों?
इस किश्ती से क्या पानी की सतह अच्छी नहीं, जिसके पेंदे में बड़ा छेद हो गया हो? इस हालत में यह दलील मुझ पर ग़ालिब आई। मैंने अपनी तबाही को और भी मुकम्मल, अपनी जात को और भी निरीह, अपनी स्याही को और भी स्वर्ण-मण्डित करने का पक्का इरादा कर लिया। मैं जान-बूझकर सईद से इखलाकी-इंतिक़ाम लेने पर आमादा हो गई। रात-भर मैं वहीं पड़ी कभी दर्द से कराहती और कभी इन्हीं ख्यालात मेँ उलझती रही। ये खतरनाक इरादा धीरे-धीरे और भी मजबूत होता जाता था। घर में मेरी किसी ने खबर न ली।
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