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प्रेमचन्द की कहानियाँ 10

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9771
आईएसबीएन :9781613015087

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दसवाँ भाग


बुढ़िया गाँव-भर के बच्चों की दादी थी, जिसका काम बच्चों की आज़ादी में बाधक होना था। गढ़िया के किनारे अमियाँ गिरी हुई थीं, लेकिन कोई बच्चा उधर नहीं जा सकता। गढ़िया में गिर पड़ेगा। बेरों का पेड़ लाल और पीले बेरों से लदा हुआ है। कोई लड़का उस पर चढ़ नहीं सकता, फिसल पड़ेगा। तालाब में कितना साफ़ पानी भरा हुआ है, मछलियों उसमें फुदक रही हैं। कमल खिले हुए हैं, पर कोई लड़का तालाब के किनारे नहीं जा सकता, डूब जाएगा। इसलिए बच्चे उसकी सूरत से अप्रसन्न थे। उसकी आँखें बचाकर सरक जाने की युक्तियाँ सोचा करते थे। मगर बुढ़िया अपने अस्सी वर्ष के तजुर्बे से उनकी हर एक नक़ल व हरकत तो ताड़ जाती थी और कोई-न-कोई पेशबंदी कर लेती थी।

बुढ़िया ने डाँटा, ''मैं तो बैठी हूँ। डर किस बात का है? जा सो रह, नहीं उठती हूँ।''

लड़के ने दरवाजे के बाहर आकर कहा, ''अब तो निकलने की बेला हो गई।''  

''अभी से निकल के कहाँ जाओगे?''

''कहीं नहीं जाता हूँ दादी।''

वह दस क़दम और आगे बढ़ा। दादी ने टोकरी और सूजा रख दिया और उठना ही चाहती थी कि फुंदन ने छलाँग मारी और सौ गज के फ़ासले पर था। बुढ़िया ने अब सख्ती से काम न चलते देखकर नरमी से पुकारा, ''अभी कहीं मत जा बेटा।''

फुंदन ने वहीं खड़े-खड़े कहा, ''जतीन को देखने जाते हैं।'' और भागता हुआ गाँव के बाहर निकल गया।

जतीन एक खोमचे वाले का नाम था। इधर कुछ दिनों से उसने गाँव का चक्कर लगाना शुरू किया था। हर रोज शाम को जरूर आ जाता। गाँव में पैसों की जगह अनाज मिल जाता था और अनाज असल क़ीमत से कुछ ज्यादा होता था। किसानों का अंदाज़ हमेशा दानशील होता है। इसीलिए जतीन करीब के कस्वे से तीन-चार मील का फ़ासिला तय करके आता था। उसके खोंचे में मीठे और नमकीन सेव, तिल या रामदाने के लड्डू कुछ बताशे और खुट्टियाँ, कुछ पट्टी होती थीं। उस पर एक फटा-पुराना कपड़ा पड़ा होता था, मगर गाँव के बच्चों के लिए वह अच्छी-अच्छी खाने की चीज़ों से भरा थाल था, जिसे खड़े होकर देखने के लिए सारे बच्चे बेताब रहते थे। इनकी बालोचित तत्परता में यह एक दिलचस्प इजाफा हो गया था। सब-के-सब तीसरे पहर ही से जतीन का इंतजार करने लगते थे। हालाँकि ऐसे खुशनसीब लड़के कम थे, जिन्हें इस खान-ए-नेमत से यथार्थ में लाभ पहुँचता हो। मगर खोंचे के गिर्द  जमा होकर थाल पर ढँके कपड़े को आहिस्ता से उठते और उन नेमतों को रानियों की तरह अपनी-अपनी जगह संकोच से बैठे देखना स्वयं बेहद खुशनुमा था। हालाँकि जतीन का आना हर एक घर में कुहराम मचा देता था और आध घंटे सारे गाँव में हँगामा-सा हो जाता था, मगर बच्चे इसका स्वागत करने को अधीर रहते थे। यह जानते हुए भी कि जतीन का आगमन उनके लिए हँसी का नहीं, रोने का मौक़ा है। सब-के-सब बड़ी बेसब्री से उसके प्रतीक्षक रहते थे, क्योंकि मिठाइयों के दर्शन से चाहे संतुष्ट न हों, रूहानी तसल्ली जरूर होती थी।

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