कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 11 प्रेमचन्द की कहानियाँ 11प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का ग्यारहवाँ भाग
सत्यप्रकाश- जी नहीं, मैं तो उसकी पुच्चियाँ ले रहा था।
देवप्रकाश- झूठ बोलता है !
सत्यप्रकाश- मैं झूठ नहीं बोलता।
देवप्रकाश को क्रोध आ गया। लड़के को दो-तीन तमाचे लगाए। पहली बार यह ताड़ना मिली और निरपराध ! इसने उसके जीवन की काया-पलट कर दी।
उस दिन से सत्यप्रकाश के स्वभाव में एक परिवर्तन दिखाई देने लगा। वह घर में बहुत कम आता। पिता आते, तो उनसे मुँह छिपाता फिरता। कोई खाना खाने को बुलाता तो चोरों की भाँति दबकता हुआ जाकर खा लेता; न कुछ माँगता, न कुछ बोलता। पहले अत्यन्त कुशाग्रबुद्धि था। उसकी सफाई सलीके और फुरती पर लोग मुग्ध हो जाते थे। अब वह पढ़ने से जी चुराता, मैले-कुचैले कपड़े पहने रहता। घर में कोई प्रेम करने वाला न था ! बाजार के लड़कों के साथ गली-गली घूमता, कनकौवे लूटता। गालियाँ बकना भी सीख गया। शरीर दुर्बल हो गया। चेहरे की कांति गायब हो गई। देवप्रकाश को अब आये दिन उसकी शरारतों के उलाहने मिलने लगे, और सत्यप्रकाश नित्य घुड़कियाँ और तमाचे खाने लगा, यहाँ तक कि अगर वह कभी घर में किसी काम से चला जाए, तो सब लोग दूर-दूर कहकर दौड़ते।
ज्ञानप्रकाश को पढ़ाने के लिए मास्टर आता था। देवप्रकाश उसे रोज सैर कराने साथ ले जाते। हँसमुख लड़का था। देवप्रिया उसे सत्यप्रकाश के साये से बचाती रहती थी। दोनों लड़कों में कितना अंतर था ! एक साफ-सुथरा सुंदर कपड़े पहने, शील और विनय का पुतला; सच बोलनेवाला, देखने वालों के मुख से अनायास ही दुआ निकल आती थी। दूसरा मैला, नटखट, चोरों की तरह मुँह छिपाए हुए, मुँहफट बात-बात पर गालियाँ बकने वाला। एक हरा-भरा पौधा, प्रेम में प्लावित, स्नेह से संचित, दूसरा सूखा हुआ, टेढ़ा, पल्लव-हीन नववृक्ष, जिसकी जड़ों को एक मुद्दत से पानी नहीं नसीब हुआ। एक को देखकर पिता की छाती ठंडी होती; दूसरे को देखकर देह में आग लग जाती।
आश्चर्य यह था कि सत्यप्रकाश को अपने छोटे भाई से लेशमात्र भी ईर्ष्या न थी। अगर उसके हृदय में कोई कोमल भाव शेष रह गया था, तो वह ज्ञानप्रकाश के प्रति स्नेह था। उस मरुभूमि में यही हरियाली थी। ईर्ष्या साम्य भाव की द्योतक है। सत्यप्रकाश अपने भाई को अपने से ही कहीं ऊँचा, कहीं भाग्यशाली समझता। उसमें ईर्ष्या का भाव ही लोप हो गया था।
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