कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 11 प्रेमचन्द की कहानियाँ 11प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का ग्यारहवाँ भाग
घृणा से घृणा उत्पन्न होती है, प्रेम से प्रेम, ज्ञानप्रकाश भी बड़े भाई को चाहता था। कभी-कभी उसका पक्ष लेकर अपनी माँ से वाद-विवाद कर बैठता। कहता, भैया की अचकन फट गई है; आप नई अचकन क्यों नहीं बनवा देतीं? माँ उत्तर देती- उसके लिए वही अचकन अच्छी है। अभी क्या, अभी तो वह नंगा घूमेगा।
ज्ञानप्रकाश बहुत चाहता था कि अपने जेब-खर्च से बचाकर कुछ अपने भाई को दे, पर सत्यप्रकाश कभी इसे स्वीकार न करता। वास्तव में जितनी देर वह छोटे भाई के साथ रहता, उतनी देर उसे एक शांतिमय आनंद का अनुभव होता। थोड़ी देर के लिए वह सद्भावों के साम्राज्य में विचरने लगता। उसके मुख से कोई भद्दी और अप्रिय बात न निकलती। एक-क्षण के लिए उसकी सोयी हुई आत्मा जाग उठती।
एक बार कई दिन तक सत्यप्रकाश मदरसे न गया। पिता ने कहा- तुम आजकल पढ़ने क्यों नहीं जाते? क्या सोच रखा है कि मैंने तुम्हारी जिन्दगी-भर का ठेका ले रखा है?
सत्यप्रकाश- मेरे ऊपर जुर्माना और फीस के कई रुपये हो गए हैं। जाता हूँ, तो दरजे से निकाल दिया जाता हूँ।
देवप्रकाश- फीस क्यों बाकी है? तुम तो महीने-महीने ले लिया करते हो न?
सत्यप्रकाश- आये दिन चंदा लगा करते हैं।
फीस के रुपये चंदे में दे दिए। और जुर्माना क्यों हुआ?
सत्यप्रकाश- फीस न देने के कारण।
देवप्रकाश- तुमने चंदा क्यों दिया?
सत्यप्रकाश- ज्ञानू ने चंदा दिया तो मैंने भी दिया।
देवप्रकाश- तुम ज्ञानू से जलते हो?
सत्यप्रकाश- मैं ज्ञानू से क्यों जलने लगा? यहाँ हम और वह दो हैं, बाहर हम और वह एक समझे जाते हैं। मैं यह नहीं कहना चाहता कि मेरे पास कुछ नहीं है।
देवप्रकाश- क्यों, यह कहते शर्म आती है?
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