कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 11 प्रेमचन्द की कहानियाँ 11प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का ग्यारहवाँ भाग
इस भाँति पड़े-पड़े उसे कई दिन हो गए। संध्या हो गई थी। सहसा उसे द्वार पर किसी के पुकारने की आवाज सुनाई पड़ी। उसने कान लगाकर सुना, और चौंक पड़ा- कोई परिचित आवाज थी। दौड़ा, द्वार पर आया, तो देखा, ज्ञानप्रकाश खड़ा है। कितना रूपवान पुरुष था ! वह उसके गले में लिपट गया।
ज्ञानप्रकाश ने उसके पैरों को स्पर्श किया। दोनों भाई घर आये। अंधकार छाया हुआ था। घर की यह दशा देखकर ज्ञानप्रकाश, जो अब तक अपने कंठ के आवेग को रोके हुए था, रो पड़ा। सत्यप्रकाश ने लालटेन जलायी। घर क्या था, भूतों का डेरा था। सत्यप्रकाश ने जल्दी से एक कुरता गले में डाल लिया। ज्ञानप्रकाश भाई का जर्जर शरीर, पीला मुख, बुझी हुई आँखें देखता और रोता था !
सत्यप्रकाश ने कहा- मैं आजकल बीमार हूँ।
ज्ञानप्रकाश- यह तो देख ही रहा हूँ।
सत्यप्रकाश- तुमने अपने आने की सूचना भी न दी, मकान का पता कैसे चला?
ज्ञानप्रकाश- सूचना तो दी थी, आपको पत्र न मिला होगा।
सत्यप्रकाश- अच्छा, हाँ, दी होगी, पत्र दूकान के पते से डाला गया होगा। मैं इधर कई दिनों से दूकान नहीं गया। घर पर सब कुशल है?
ज्ञानप्रकाश- माताजी का देहांत हो गया।
सत्यप्रकाश- अरे ! क्या बीमार थीं?
ज्ञानप्रकाश- जी नहीं। मालूम नहीं, क्या खा लिया। इधर उन्हें उन्माद-सा हो गया था। पिताजी ने कुछ कटु वचन कहे थे, शायद इसी पर कुछ खा लिया।
सत्यप्रकाश- पिताजी तो कुशल से हैं?
ज्ञानप्रकाश- हाँ, अभी मरे नहीं हैं।
सत्यप्रकाश- अरे ! क्या बहुत बीमार हैं?
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