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प्रेमचन्द की कहानियाँ 11

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9772
आईएसबीएन :9781613015094

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का ग्यारहवाँ भाग


ज्ञानप्रकाश- माता ने विष खा लिया, तो उनका मुँह खोलकर दवा पिला रहे थे। माताजी ने जोर से उनकी उँगलियाँ काट लीं। वही विष उनके शरीर में पहुँच गया। तब से सारा शरीर सूज आया है ! अस्पताल में पड़े हुए हैं, किसी को देखते हैं, तो काटने दौड़ते हैं। बचने की आशा नहीं है।

सत्यप्रकाश- तब तो घर ही चौपट हो गया?

ज्ञानप्रकाश- ऐसे घर को अब से बहुत पहले चौपट हो जाना चाहिए था।

तीसरे दिन दोनों भाई प्रातःकाल कलकत्ते से बिदा होकर चल दिए।

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4. गृह-नीति

जब माँ, बेटे से बहू की शिकायतों का दफ्तर खोल देती है और यह सिलसिला किसी तरह खत्म होते नजर नहीं आता, तो बेटा उकता जाता है और दिन-भर की थकान के कारण कुछ झुँझलाकर माँ से कहता है, 'तो आखिर तुम मुझसे क्या करने को कहती हो अम्माँ? मेरा काम स्त्री को शिक्षा देना तो नहीं है। यह तो तुम्हारा काम है ! तुम उसे डाँटो, मारो,जो सजा चाहे दो। मेरे लिए इससे ज्यादा खुशी की और क्या बात हो सकती है कि तुम्हारे प्रयत्न से वह आदमी बन जाय? मुझसे मत कहो कि उसे सलीका नहीं है, तमीज नहीं है, बे-अदब है। उसे डाँटकर सिखाओ।'

माँ- 'वाह, मुँह से बात निकालने नहीं देती, डाँटूं तो मुझे ही नोच खाय। उसके सामने अपनी आबरू बचाती फिरती हूँ, कि किसी के मुँह पर मुझे कोई अनुचित शब्द न कह बैठे। बेटा तो फिर इसमें मेरी क्या खता है?

'मैं तो उसे सिखा नहीं देता कि तुमसे बे-अदबी करे !'

माँ- 'तो और कौन सिखाता है?'

बेटा- 'तुम तो अन्धेर करती हो अम्माँ !'

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