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प्रेमचन्द की कहानियाँ 11

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9772
आईएसबीएन :9781613015094

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का ग्यारहवाँ भाग


इस घर में वह कैसे जाय? क्या फिर वही गालियाँ खाने, वही फटकार सुनने के लिए? और आज इस घर में जीवन के दस साल गुजर जाने पर यह हाल हो रहा है ! मैं किसी से कम काम करता हूँ? दोनों साले मीठी नींद सोते रहते हैं और मैं बैलों को सानी-पानी देता हूँ, छाँटी काटता हूँ। वहाँ सब लोग पल-पल पर चिलम पीते है, मैं आँखें बन्द किये अपने काम में लगा रहता हूँ। संध्या समय घरवाले गाने-बजाने चले जाते हैं मैं घड़ी रात तक गायें-भैंसे दुहता रहता हूँ। उसका यह पुरस्कार मिल रहा है कि कोई खाने को भी नहीं पूछता। उल्टे और गालियाँ मिलती हैं।

उसकी स्त्री घर में से डोल ले कर निकली और बोली– जरा इसे कुएँ से खींच लो, एक बूँद पानी नहीं।

हरिधन ने डोल लिया और कुएँ से पानी भर लाया। उसे जोर की भूख लगी हुई थी। समझा, अब खाने को बुलाने आयेगी; मगर स्त्री डोल ले कर अन्दर गयी तो वहीं की हो रही। हरिधन थका-माँदा, क्षुधा से व्याकुल पड़ा-पड़ा सो रहा।

सहसा उसकी स्त्री गुमानी ने आ कर उसे जगाया।

हरिधन ने पड़े-पड़े कहा– क्या है क्या? क्या पड़ा भी न रहने देगी या और पानी चाहिए?

गुमानी कटु स्वर में बोली– गुर्राते क्या हो, खाने को तो बुलाने आयी हूँ।

हरिधन ने देखा, उसके दोनों साले और बड़े साले के दोनो लड़के भोजन किये चले जा रहे थे। उसके देह में आग लग गयी। मेरी अब यह नौबत पहुँच गयी कि इन लोगों के साथ बैठ कर खा भी नहीं सकता। ये लोग मालिक हैं। मैं इनकी जूठी थाली चाटने वाला हूँ। मैं इनका कुत्ता हूँ जिसे खाने के बाद एक टुकड़े रोटी डाल दी जाती है। यही घर  है जहाँ आज के दस साल पहले कितना आदर-सत्कार होता था। साले गुलाम बने रहते थे। सास मुँह जोहती रहती थी। स्त्री पूजा करती थी। तब उसके पास रुपये थे, जायदाद थी। अब वह दरिद्र है उसकी सारी जायदाद को इन्हीं लोगों ने कूड़ा कर दिया। अब उसे रोटियों के भी लाले हैं। उसके जी में एक ज्वाला-सी उठी कि इस वक्त अन्दर जा कर सास और साली को भिगो भिगो कर लगाये; पर जब्त कर के रह गया। पड़े-पड़े बोला– मुझे भूख नहीं है। आज न खाऊँगा।

गुमानी ने कहा– न खाओगे मेरी बला से, हाँ नहीं तो! खाओगे, तुम्हारे ही पेट में जायगा, कुछ मेरे पेट में थोड़े ही चला जायगा।

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