लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 11

प्रेमचन्द की कहानियाँ 11

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9772
आईएसबीएन :9781613015094

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

113 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का ग्यारहवाँ भाग


हरिधन का क्रोध आँसू बन गया। यह मेरी स्त्री है, जिसके लिए मैंने अपना सर्वस्व मिट्टी में मिला दिया। मुझे उल्लू बना कर यह सब अब निकाल देना चाहते हैं। वह अब कहाँ जाय? क्या करे?

उसकी सास आ कर बोली– चल कर खाना क्यों नहीं खा लेते जी, रूठते किस पर हो? यहाँ तुम्हारे नखरे सहने का किसी में बूता नहीं है। जो देते हो वह मत देना और क्या करोगे। तुमसे बेटी ब्याही है, कुछ तुम्हारी जिन्दगी का ठीका नहीं लिया है।

हरिधन ने मर्माहत हो कर कहा– हाँ अम्माँ, मेरी भूल थी कि मैं यही समझ रहा था। अब मेरे पास क्या है कि तुम मेरी जिन्दगी का ठीका लोगी। जब मेरे पास भी धन था तब कुछ आता था। अब दरिद्र हूँ, तुम क्यों बात पूछोगी।

बूढ़ी सास भी मुँह फुला कर भीतर चली गयी।

बच्चों के लिए बाप एक फ़ालतू सी चीज–एक विलास की वस्तु–है, जैसे घोड़े के लिए चने या बाबुओं के लिए मोहनभोग, माँ रोटी-दाल। मोहन-भोग उम्र भर न मिले तो किसका नुक़सान है; मगर एक दिन रोटी के दर्शन न हों, तो फिर देखिए, क्या हाल होता है। पिता के दर्शन कभी-कभी शाम-सबेरे हो जाते हैं, वह बच्चे को उछालता है, दुलारता है, कभी गोद में ले कर या उँगली पकड़ा कर सैर कराने ले जाता है और बस, यही उसके कर्तव्य की इति है। वह परदेश चला जाय, बच्चे को परवा नहीं होती; लेकिन माँ तो बच्चे का सर्वस्व है। बालक एक मिनट के लिए भी उसका वियोग नहीं सह सकता। पिता कोई हो, उसे परवा नहीं, केवल एक उछालने-कुदानेवाला आदमी होना चाहिए; लेकिन माता तो अपनी ही होनी चाहिए, सोलहों आने अपनी। वही रूप, वही रंग वही प्यार वही सब कुछ। वह अगर नहीं है तो बालक के जीवन का स्रोत मानो सूख जाता है, फिर वह शिव का नन्दी है, जिस पर फूल या जल चढ़ाना लाजिमी नहीं, अख्तियारी है।

हरिधन की माता का आज दस साल हुए देहान्त हो गया था। उस वक्त उसका विवाह हो चुका था। वह सोलह साल का कुमार था। पर माँ के मरते ही उसे मालूम हुआ, मैं कितना निस्सहाय हूँ। जैसे उस घर पर उसका कोई अधिकार ही न रहा हो। बहनों के विवाह हो चुके थे। भाई कोई दूसरा न था। बेचारा अकेले घर में जाते भी डरता था। माँ के लिए रोता था, पर माँ की परछाईं से डरता था। जिस कोठरी में उसने देह-त्याग किया था, उधर वह आँखें तक न उठाता। घर में एक बुआ थी, वह हरिधन को बहुत दुलार करती। हरिधन को अब दूध ज्यादा मिलता, काम भी कम करना पड़ता। बुआ बार-बार पूछती– बेटा! कुछ खाओगे? बाप भी अब से उसे ज्यादा प्यार करता, उसके लिए अलग एक गाय मँगवा दी, कभी-कभी उसे कुछ पैसे दे देता कि जैसे चाहे खर्च करे। पर इन मरहमों से वह घाव न पूरा होता था, जिसने उसकी आत्मा को आहत कर दिया था। वह दुलार और प्यार उसे बार-बार माँ की याद दिलाता। माँ की घुड़कियों में जो मजा था, वह क्या इस दुलार में था! माँ से माँगकर, लड़कर, ठुनककर, रूठकर लेने में जो आनंद था, वह क्या इस भिक्षादान में था? पहले वह स्वस्थ था, माँग-माँग कर खाता था, लड़-लड़ कर खाता; अब वह बीमार था, अच्छे से अच्छे पदार्थ उसे दिये जाते थे, पर भूख न थी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book