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प्रेमचन्द की कहानियाँ 11

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9772
आईएसबीएन :9781613015094

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का ग्यारहवाँ भाग


बड़े साले ने कहा– हम लोगों की बराबरी करते हैं। यह नहीं समझते कि किसी ने उनकी जिन्दगी भर का बीड़ा थोड़े ही लिया है। दस साल हो गये। इतने दिनों में क्या दो-तीन हज़ार न हड़प गये होंगे?

छोटे साले बोले– मजूर हो तो आदमी घुड़के भी, डाँटे भी, अब इनसे कोई क्या कहे। न जाने इनसे कभी पिंड छूटेगा भी या नहीं। अपने दिल में समझते होंगें, मैंने दो हजार रुपये नहीं दिये हैं? यह नहीं समझते कि उनके दो हज़ार कब के उड़ चुके। सवा सेर तो एक जून को चाहिए।

सास ने गम्भीर भाव से कहा– बड़ी भारी खोराक है !

गुमानी माता के सिर से जूx निकाल रही थी। सुलगते हुए हृदय से बोली– निकम्मे आदमी को खाने के सिवा और क्या रहता है!

बड़े– खाने की कोई नहीं। जिसकी जितनी भूख हो उतना खाय, लेकिन कुछ पैदा भी करना चाहिए। यह नहीं समझते कि पहनई में किसी के दिन कटे हैं !

छोटे– मैं तो एक दिन कह दूँगा, अब अपनी राह लीजिए, आपका करजा नहीं खाया है।

गुमानी घरवालों की ऐसी-ऐसी बातें सुन कर अपने पति से द्वेष करने लगी थी। अगर वह बाहर से चार पैसे लाता, तो इस घर में उसका कितना मान-सम्मान होता, वह भी रानी बन कर रहती। न जाने कहीं बाहर जा कर कमाते उनकी नानी मरती है। गुमानी की मनोवृत्तियाँ तभी तक बिलकुल बालपन की सी थीं। उसका अपना कोई घर न था। उसी घर का हित-अहित उसके लिए भी प्रधान था। वह भी उन्हीं शब्दों पर विचार करती, इस समस्या को उन्हीं आँखों से देखती जैसे उसके घरवाले देखते थे। सच तो, दो हज़ार रुपये में क्या किसी को मोल ले लेंगे। दस साल में दो हज़ार होते ही क्या हैं? दो सौ ही तो साल भर में हुए। क्या दो आदमी साल भर में दो सौ भी न खायेंगे? फिर कपड़े-लत्ते, दूध-घी, सभी कुछ तो है। दस साल हो गये, एक पीतल का छल्ला नहीं बना। घर से निकलते तो जैसे इनके प्रान निकलते हैं। जानते हैं, जैसे पहले पूजा होती थी वैसे ही जनम भर होती रहेगी। यह नहीं सोचते कि पहले और बात थी, अब और बात है। बहू ही पहले ससुराल जाती है तो उसका कितना महामह होता है। उसके डोली से उतरते ही बाजे बजते हैं, गाँव-मुहल्ले की औरतें उसका मुँह देखने आती हैं और रुपये देती हैं। महीनों उसे घर भर से अच्छे खाने को मिलता है, अच्छा पहनने को, काम नहीं लिया जाता; लेकिन छः महीने के बाद कोई उसकी बात भी नहीं पूछता; वह घर भर की लौंडी हो जाती है। उनके घर में मेरी भी तो वही गति होती। फिर काहे का रोना। जो यह कहो कि मैं तो काम करता हूँ तो तुम्हारी भूल है, मजूर की और बात है।

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