कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 11 प्रेमचन्द की कहानियाँ 11प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का ग्यारहवाँ भाग
उसे आदमी डाँटता भी है, मारता भी है, जब चाहता है, रखता है, जब चाहता है, निकाल देता है। कस कर काम लेता है। यह नहीं कि जब जी में आया कुछ काम किया, जब आया, पड़ कर सो रहे।
हरिधन अभी पड़ा अन्दर ही अन्दर सुलग रहा था कि दोनों साले बाहर आये और बड़े साहब बोले– भैया, उठो, तीसर, पहर ढल गया, कब तक सोते रहोगे? सारा खेत पड़ा हुआ है।
हरिधन चट उठ बैठा और तीव्र स्वर में बोला– क्या तुम लोगों ने मुझे उल्लू समझ लिया है?
दोनों साले हक्का-बक्का रह गये। जिस आदमी ने कभी जबान नहीं खोली, हमेशा गुलामों की तरह हाथ बाँधे हाजिर रहा, वह आज एकाएक इतना आत्माभिमानी हो जाय, यह उनको चौंका देने के लिए काफी था। कुछ जवाब न सूझा।
हरिधन ने देखा, इन दोनों के क़दम उखड़ गये हैं, तो एक धक्का और देने की प्रबल इच्छा को न रोक सका। उसी ढंग से बोला– मेरी भी आँखें हैं। अन्धा नहीं हूँ, न बहरा ही हूँ। छाती फाड़ कर काम करूँ और उस पर भी कुत्ता समझा जाऊँ; ऐसे गधे कहीं और होंगे!
अब बड़े साले भी गर्म पड़े– तुम्हें किसी ने यहाँ बाँध तो नहीं रखा है।
अब की हरिधन लाजवाब हुआ। कोई बात न सूझी।
बड़े ने फिर उसी ढंग से कहा– अगर तुम यह चाहो कि जन्म भर पाहुने बने रहो और तुम्हारा वैसा ही आदर-सत्कार होता रहे, तो यह हमारे बस की बात नहीं है।
हरिधन ने आँखें निकाल कर कहा– क्या मैं तुम लोगों से कम काम करता हूँ?
बड़े– यह कौन कहता है?
हरिधन– तो तुम्हारे घर की यही नीति है कि जो सबसे ज्यादा काम करे वही भूखों मारा जाय?
बड़े– तुम खुद खाने नहीं गये। क्या कोई तुम्हारे मुँह में कौर डाल देता?
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