कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 11 प्रेमचन्द की कहानियाँ 11प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का ग्यारहवाँ भाग
तीस मील की मंजिल हरिधन ने पाँच घंटों में तय की। जब वह अपने गाँव की अमराइयों के सामने पहुँचा तो उसी मातृ भावना ऊषा की सुनहरी गोद में खेल रही थी। उन वृक्षों को देख कर उसका विह्वल हृदय नाचने लगा। मन्दिर का वह सुनहरा कलश देख कर वह इस तरह दौड़ा मानो एक छलाँग में उसके ऊपर जा पहुँचेगा। वह वेग में दौड़ा जा रहा था मानों उसकी माता गोद फैलाये उसे बुला रही है। जब वह आमों के बाग में पहुँचा, जहाँ डालियों पर बैठ कर वह हाथी की सवारी का आनन्द पाता था, जहाँ की कच्ची बेरों और लिसोड़ों में एक स्वर्गीय स्वाद था, तो वह बैठ गया और भूमि पर सिर झुका रोने लगा, मानों अपनी माता को अपनी विपत्ति-कथा सुना रहा हो। वहाँ की वायु में, वहाँ के प्रकाश मे, मानों उसकी विराट-रूपिणी माता व्याप्त हो रही थी, वहाँ की अंगुल-अंगुल भूमि माता के पद-चिह्नों से पवित्र थी, माता के स्नेह में डूबे हुए शब्द अभी तक मानों आकाश में गूँज रहे थे। इस वायु और इस आकाश में न जाने कौन-सी संजीवनी थी जिसने उसके शोकार्त्त हृदय को फिर बालोत्साह से भर दिया। वह एक पेड़ पर चढ़ गया और अधर से आम तोड़-तोड़ कर खाने लगा। सास के वह कठोर शब्द स्त्री का वह निष्ठुर आघात, वह सारा अपमान उसे भूल गया। उसके पाँव फूल गये थे, तलवों में जलन हो रही थी; पर इस आनन्द में उसे किसी बात का ध्यान न था।
सहसा रखवाले ने पुकारा– वह कौन ऊपर चढ़ा हुआ है? उतर अभी, नहीं तो ऐसा पत्थर खींच कर मारूँगा कि वहीं ठंडे हो जाओगे।
उसने कई गालियाँ भी दीं। इस फटकार और इन गालियों में इस समय हरिधन को अलौकिक आनन्द मिल रहा था। वह डालियों में छिप गया, कई आम काट-काट कर नीचे गिराये, और जोर से ठठ्ठा मार कर हँसा। ऐसी उल्लास से भरी हुई हँसी उसने बहुत दिन से न हँसी थी।
रखवाले को यह हँसी परिचित मालूम हुई। मगर हरिधन यहाँ कहाँ? वह तो ससुराल की रोटियाँ तोड़ रहा है। कैसा हँसोड़ था; कितना चिबिल्ला। न जाने बेचारे का क्या हाल हुआ! पेड़ की डाल से तालाब में कूद पड़ता था। अब गाँव में ऐसा कौन है?
डाँट कर बोला– वहाँ से बैठे-बैठे हँसोगे, तो आकर सारी हँसी निकाल दूँगा, नहीं सीधे उतर आओ।
वह गालियाँ देने जा रहा था कि एक गुठली आ कर उसके सिर पर लगी। सिर सहलाता हुआ बोला– यह कौन शैतान है, नहीं मानता, ठहर तो, मैं आ कर तेरी खबर लेता हूँ।
उसने अपनी लकड़ी नीचे रख दी और बन्दरों की तरह चटपट ऊपर चढ़ गया। देखा तो हरिधन बैठा मुसकिरा रहा है। चकित हो कर बोला– अरे हरिधन ! तुम यहाँ कब आये! इस पेड़ पर कब से बैठे हो?
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