कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 12 प्रेमचन्द की कहानियाँ 12प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बारहवाँ भाग
उसके पास पहले के भी कुछ गहने थे लेकिन वह उन्हें भी नहीं पहनती थी। त्योहार या उत्सव में भी वह प्रायः सादी साड़ी पहनकर ही रह जाती थी। वह अपनी महरी और पड़ौसिनों को दिखाना चाहती थी कि उसे गहनों की भूख नहीं है, लेकिन यह इस समय अपने दुर्भाग्य और पति की निर्धनता की घोषणा थी। उसे रह-रहकर विचार आता कि मेरे लिये सुरेन्द्र जितना कुछ कर सकते हैं उतना नहीं करते। वे मेरी अनापत्ति और सीधेपन का नाजायज फायदा उठाते हैं। निराश होकर वह कभी-कभी सुरेन्द्र से झगड़ना चाहती, झगड़ती, मुँह फेरकर बात करती, उसे सुना-सुनाकर अपने भाग्य को कोसती। सुरेन्द्र समझ जाते कि इस समय हवा का रुख बदला हुआ है, बचकर निकल जाते। कभी-कभी गंगा स्नान या किसी मेले से लौटकर पार्वती पर गहनों का उन्माद-सा छा जाता। वह संकल्प करती कि एक बार मन की निकाल ही लूँ, जो दो-चार सौ रुपये बचे हुए हैं उनकी कोई चीज बनवा लूँ, कल की चिन्ता में कहाँ तक मरूँ। लेकिन एक क्षण में उसका यह उन्माद उड़नछू हो जाता, यहाँ तक कि लगातार सहन करने के कारण उसकी सजने के शौक की इच्छाएँ मरकर मन के एक कोने में पड़ी रहती थीं।
मगर आज पाँच साल के बाद यह इच्छा जाग्रत हुई है। इसमें बेचैनी नहीं है लेकिन बेचैनी से भी ज्यादा दुःखदायी उदासी है। पार्वती के छोटे भाई की शादी होने वाली है, उसके मायके से बुलावा आया है। इस समारोह में भाग लेना जरूरी है। गहनों का पहनना आवश्यक हो गया। इस अवसर पर सुरेन्द्र भी अपनी विवशता का बहाना न कर सके। इस समय यह उपाय भी सफल होता दिखाई नहीं दिया।
शाम के समय सुरेन्द्र बाहर से लपके हुए आए। उनका चेहरा चमक रहा था। उन्होंने पार्वती के हाथ में एक पोटली रख दी। पार्वती ने खोलकर देखा तो पोटली में एक जड़ाऊ कंगन, एक चन्द्रहार और झुमके दिखाई दिए। पार्वती कुछ सहम-सी गई। उसे सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि सुरेन्द्र उसके लिये इतनी और ऐसी कीमती चीजें लाएँगे। खुशी के बदले एक व्याकुलता, एक भय का अनुभव हुआ। वह डरते-डरते बोली,’ये कितने के हैं?’
सुरेन्द्र,’पसन्द तो हैं न?’
पार्वती,’पहले दाम तो बताओ।’
सुरेन्द्र,’चार सौ।’
पार्वती,’सच?’
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