कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 12 प्रेमचन्द की कहानियाँ 12प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बारहवाँ भाग
सुरेन्द्र,’मेरे पास और रुपये कहाँ थे?’
पार्वती,’उधार तो नहीं लेने पड़े?’
सुरेन्द्र,’नहीं, उधार क्या लेना।’
पार्वती,’तब पसन्द हैं।’
सुरेन्द्र ने वास्तविकता छिपानी चाही थी लेकिन अपनी विशाल-हृदयता का बखान किए बिना न रह सके। सोचा कि इन्हें क्या पता चलेगा कि इनके लिए इस समय कितने बोझ के नीचे दबा जा रहा हूँ। बोले,’सच-सच कह दूँ! बारह सौ लगे।’
पार्वती ने पति को तिरस्कार की दृष्टि से देखते हुए कहा,’तो इतनी चीजें लाने की क्या जरूरत थी?’
दानवीर जैसी लापरवाही के साथ सुरेन्द्र बोले,’एक मुद्दत के बाद जब जेवर बनवाने लगा तो कंजूसी करने बैठता। शर्म भी तो कोई चीज है।’ पार्वती ने पति की ओर कृतज्ञता की दृष्टि से देखा। उसमें कुछ प्यार की झलक थी कुछ शिकायत की, कुछ गर्व की कुछ परेशानी की। उसने और अधिक प्रश्न न किए कि कहीं कोई ऐसी बात कानों में न पड़ जाय जिससे इन गहनों को वापस कर देना ही जरूरी हो जाय। जिस व्यक्ति के हलक में प्यास से काँटे पड़े हुए हों वह यह नहीं पूछता कि बर्तन कैसा है और पानी किसने भरा है।
एक हफ्ते तक पार्वती एक दूसरी ही दुनिया में रही। उसके अन्दाज में एक शान, बातों में अभिमान और चेहरे से अमीरी झलकती थी। कितने ही ऐसे काम जिन्हें वह पहले निस्संकोच कर लिया करती थी, अब उसे दूभर लगने लगे। यहाँ तक कि अपनी नन्हीं बच्ची तारा को गोद में लेते हुए भी उसे अपने कपड़े मैले होने की आशंका होने लगती, लेकिन वह स्वयं अपने व्यवहार में आए इस परिवर्तन से अनजान थी।
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