कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 12 प्रेमचन्द की कहानियाँ 12प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बारहवाँ भाग
यह रोग पार्वती की आत्मा में घुन की तरह लग गया। उसने दूसरों के घर आना-जाना छोड़ दिया, मन मारे अपने घर में ही बैठी रहती। उसे ऐसा लगता था कि अब औरतें, यहाँ तक कि उसकी माँ भी उसे तिरस्कार की दृष्टि से देख रही हैं। पहले गहनों की चर्चा में उसे एक विशेष आनन्द मिलता था, अब वह भूलकर भी गहनों की चर्चा नहीं करती। मानो अब उसे इस सम्बन्ध में मुँह खोलने का भी मन न हो।
आखिरकार एक दिन उसने अपने सब गहने उतारकर बक्से में रख दिए और ठान लिया कि इन्हें खोलूँगी नहीं। उसे इन गहनों के खरीदने पर पछतावा होने लगा। दिखावे की चाह में जिन्दगी के सुख-चैन में बेकार खलल पड़ गया। वह बिना गहनों के ही अच्छी थी कि यह मुफ्त की उलझन तो नहीं थी। घर के रुपये गँवाकर यह सिरदर्द खरीदना बड़ा महँगा सौदा है। तीज के दिन पार्वती की माँ ने कहा,’बेटी, आज मुहल्ले की सब औरतें स्नान करने जा रही हैं। तुम भी चलोगी?’
पार्वती ने उपेक्षा से कहा,’नहीं, मैं नहीं जाऊँगी।’
माँ,’चलती क्यों नहीं। बरस-बरस का त्योहार है, सब अपने मन में क्या कहेंगी?’
पार्वती,’जो चाहे कहें, मैं तो जाऊँगी नहीं।’
क्वार के दिन थे। सुरेन्द्र को अभी तक छुट्टी नहीं मिली थी। पार्वती ने जल-भुनकर उन्हें कई चिट्ठियाँ लिखी थीं, पर इधर दो हफ्ते से पत्र लिखना बंद कर दिया था। उसे अपनी जिन्दगी बोझ लगती थी। मुहल्ले में बुखार और चेचक का प्रकोप था, कोई किसी के घर आता-जाता न था। नाश्ते के बदले घरों में काढ़ा पकता था। अस्पताल में मेला सा लगा रहता था। वैद्य और हकीम पत्थर के देवता बने हुए थे। एक दिन पार्वती की माँ ने कहा,’बेटी, आज शीतला देवी आ रही हैं। चलो, उनसे मिल आएँ।’
पार्वती,’शीतला देवी कौन हैं?’
माँ,’यह तो नहीं जानती, मगर कभी-कभी यहाँ आया करती हैं। औरत क्या है देवी ही है।’
पार्वती,’क्या करती हैं?’
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