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प्रेमचन्द की कहानियाँ 12

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :134
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9773
आईएसबीएन :9781613015100

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बारहवाँ भाग


माँ,’यहाँ तो जब आती हैं, बीमारों की दवा-दारू करती हैं और किसी से एक पैसा भी नहीं लेतीं।’

पार्वती,’तो घर की मालदार होंगी?’

माँ,’नहीं, सुनती हूँ कि सिलाई करके गुजर-बसर करती हैं। ब्याह के बाद ही पति हैजे से मर गया, उसका मुँह तक नहीं देखा। तब से इसी भाँति काम कर रही हैं।’

पार्वती,’तो क्या अभी उम्र अधिक नहीं है?’

माँ,’नहीं, अभी उम्र ही क्या है। नारायण ने जैसी शक्ल-सूरत दी है, वैसा ही स्वभाव है। किसी महल में होती तो महल जगमगा उठता। ऐसी हँसमुख, ऐसी मिलनसार कि पास से हटने का मन नहीं होता। जब तक यहाँ रहती हैं, भीड़ लगी रहती है। पूरा मुहल्ला घेरे रहता है।’

इतने में महरी ने आकर कहा,’बहूजी, शीतला देवी आई हैं और पाठशाला में बैठी हुई लड़कियों से कुछ पूछ रही हैं। कई लड़कियों को तो इनाम भी दिए हैं। मैं भी जाती हूँ, जरा दर्शन कर आऊँ।’

माँ ने कहा,’अरी तू पानी तो भर दे, न जाने कब तक लौटेगी।’

महरी,’अभी लौटी आती हूँ। कहीं ऐसा न हो कि चली जाएँ।’

महरी के जाने के एक घंटे बाद पार्वती की वही मोतियों के हार वाली सहेली आकर बोली,’चलो बहन, शीतला देवी से मिल आएँ। मुहल्ले की सभी औरतें जा रही हैं।’

पार्वती को भी उत्कंठा हुई। तारा को एक अच्छी सी फ्रॉक पहना दी परन्तु स्वयं वही सादी सी साड़ी पहने हुए शीतला से मिलने चली। गहने नहीं पहने।

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