कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 13 प्रेमचन्द की कहानियाँ 13प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेरहवाँ भाग
कहीं ऊँचे-ऊँचे साखू और महुए के जंगल थे और कहीं हरे-भरे जामुन के वन। उनकी गोद में हाथियों और हिरनों के झुंड कलोलें कर रहे थे। धान की क्यारियाँ पानी से भरी हुई थीं। किसानों की स्त्रियाँ धान बिठाती थीं और सुहावने गीत गाती थीं। कहीं उन मनोहारी ध्वनियों के बीच में, खेत की मेड पर छाते की छाया में बैठे हुए जमींदारों के कठोर शब्द सुनाई देते थे।
इसी प्रकार यात्रा के कष्ट सहते अनेकानेक विचित्र दृश्य देखते दोनों यात्री तराई पार करके नेपाल की भूमि में प्रविष्ट हुए।
प्रातःकाल का सुहावना समय था। नेपाल के महाराजा सुरेन्द्र विक्रमसिंह का दरबार सजा हुआ था। राज्य के प्रतिष्ठित मंत्री अपने-अपने स्थान पर बैठे हुए थे। नेपाल ने एक बड़ी लड़ाई के पश्चात् तिब्बत पर विजय पाई थी। इस समय संधि की शर्तों पर विवाद छिड़ा था। कोई युद्धव्यय का उत्सुक था, कोई राजविस्तार का। कोई-कोई महाशय वार्षिक कर पर जोर दे रहे थे। केवल राना जंगबहादुर के आने की देर थी। वे कई महीनों के देशाटन के पश्चात् आज ही रात को लौटे थे और यह प्रसंग जो उन्हीं के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा था, अब मंत्रि-सभा में उपस्थित किया गया था। तिब्बत के यात्री, आशा और भय की दशा में प्रधानमंत्री के मुख से अंतिम निपटारा (फ़ैसला) सुनने को उत्सुक हो रहे थे। नियत समय पर चोबदार ने राजा के आगमन की सूचना दी। दरबार के लोग उन्हें सम्मान देने के लिए खड़े हो गए। महाराज को प्रणाम करने के पश्चात् वे अपने सुसज्जित आसन पर बैठ गए। महाराज ने कहा- ''राना जी, आप संधि के लिए कौन-कौन प्रस्ताव करना चाहते थे? ''
राना ने नम्र भाव से कहा- ''मेरी अल्पबुद्धि में तो इस समय कठोरता का व्यवहार करना अनुचित है। शोकाकुल शत्रु के साथ दयालुता का आचरण करना हमारा सर्वदा उद्देश्य रहा है। क्या इस अवसर पर स्वार्थ के मोह में हम अपने बहुमूल्य उद्देश्य को भूल जाएँगे? हम ऐसी संधि चाहते हैं जो हमारे हृदयों को एक कर दे। यदि तिब्बत का दरबार हमें व्यापारिक सुविधाएँ प्रदान करने पर कटिबद्ध हो तो हम संधि करने के लिए सर्वथा उद्यत हैं।''
मंत्रि-मंडल में विवाद आरंभ हुआ। सबकी सम्मति इस दयालुता के अनुसार न थी, किंतु महाराज ने राना का समर्थन किया। यद्यपि अधिकांश सदस्यों को शत्रु के साथ ऐसी नर्मी पसंद न थी, तथापि महाराज के विपक्ष में बोलने का किसी को साहस न हुआ।
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