कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 13 प्रेमचन्द की कहानियाँ 13प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेरहवाँ भाग
इस प्रसंग पर यहाँ तक मतभेद तथा वादविवाद हुआ कि एक शोर-सा मच गया और कई प्रधान यह कहते हुए सुनाई दिए कि महारानी का इस समय आना देश के लिए कदापि मंगलकारी नहीं हो सकता।
तब राना जंगबहादुर उठे। उनका मुख लाल हो गया था। उनका सद्विचार क्रोध पर अधिकार जमाने के लिए व्यर्थ प्रयत्न कर रहा था। वे बोले- ''भाइयों! यदि इस समय मेरी बातें आप लोगों को अत्यंत कड़ी जान पड़ें तो मुझे क्षमा कीजिएगा, क्योंकि अब मुझ में अधिक श्रवण करने की शक्ति नहीं है। अपनी जातीय साहस-हीनता का यह लज्जाजनक दृश्य अब मुझसे नहीं देखा जाता। यदि नेपाल के दरबार में इतना भी साहस नहीं कि वह अतिथि-सत्कार और सहायता की नीति को निभा सके तो मैं इस घटना के संबंध में सब प्रकार का भार अपने ऊपर लेता हूँ। दरबार अपने को इस विषय में निर्दोष समझे और इसकी सर्व-साधारण में घोषणा कर दे।''
कड़बड़ खत्री गर्म होकर बोले- ''केवल यह घोषणा देश को भय से रक्षित नहीं कर सकती।''
राना जंगबहादुर ने क्रोध से ओठ चबा लिया, किंतु सँभलकर कहा- ''देश का शासन-भार अपने ऊपर लेनेवालों को ऐसी अवस्थाएँ अनिवार्य हैं। हम उन नियमों से-जिन्हें पालन करना हमारा कर्तव्य है-मुँह नहीं मोड़ सकते। अपनी शरण में आए हुओं का हाथ पकड़ना-उनकी रक्षा करना राजपूतों का धर्म था। हमारे पूर्व-पुरुष सदा इस नियम पर, धर्म पर प्राण देने को उद्यत रहते थे। अपने माने हुए धर्म को तोड़ना एक स्वतंत्र जाति के लिए लज्जास्पद है। अँग्रेज़ हमारे मित्र हैं और अत्यंत हर्ष का विषय है कि बुद्धिशाली मित्र हैं। महारानी चंद्रकुँवरि को अपनी दृष्टि में रखने से उनका उद्देश्य केवल यह था कि उपद्रवी लोगों के गिरोह का कोई केंद्र शेष न रहे। यदि उनका यह उद्देश्य भंग न हो तो हमारी ओर से शंका होने का न कोई अवसर है और न हमें उनसे लज्जित होने की कोई आवश्यकता।''
कड़बड़- ''महारानी चंद्रकुँवरि यहाँ किस प्रयोजन से आई हैं?''
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