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प्रेमचन्द की कहानियाँ 14

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :163
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9775
आईएसबीएन :9781613015124

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौदहवाँ भाग


सेठजी ने श्रद्धा-भरी आँखों से देखकर कहा, "भगवान् जो कुछ करते हैं, प्राणियों के कल्याण के लिए करते हैं। हम समझते हैं, हमारे साथ विधि ने अन्याय किया; पर यह हमारी मूर्खता है। विधि अबोध बालक नहीं है, जो अपने ही सिरजे हुए खिलौने को तोड़-फोड़कर आनन्दित होता है। न वह हमारा शत्रु है, जो हमारा अहित करने में सुख मानता है। वह परम दयालु है, मंगल-रूप है। यही अवलम्ब था, जिसने निर्वासन-काल में मुझे सर्वनाश से बचाया। इस आधार के बिना कह नहीं सकता, मेरी नौका कहाँ-कहाँ भटकती और उसका क्या अन्त होता।'

बिन्नी ने कई कदम चलने के बाद कहा, 'मैंने तुमसे झूठ-मूठ कहा, कि अम्माँ बीमार है। अम्माँ तो अब बिल्कुल अच्छी हैं। तुम कई दिन से गये नहीं, इसीलिए उन्होंने मुझसे कहा, इस बहाने से बुला लाना। तुमसे वह एक सलाह करेंगी।' कृष्णचन्द्र ने कुतूहल-भरी आँखों से देखा।

'तुमसे सलाह करेंगी? मैं भला क्या सलाह दूंगा? मेरे दादा आ गये, इसीलिए नहीं आ सका।'

'तुम्हारे दादा आ गये ! उन्होंने पूछा होगा, यह कौन लड़की है?'

'नहीं, कुछ नहीं पूछा,।'

'दिल में तो कहते होंगे, कैसी बेशरम लड़की है।'

'दादा ऐसे आदमी नहीं हैं। मालूम हो जाता कि यह कौन है, तो बड़े प्रेम से बातें करते। मैं तो कभी-कभी डरा करता था कि न-जाने उनका मिजाज कैसा हो। सुनता था, कैदी बड़े कठोर-हृदय हुआ करते हैं, लेकिन दादा तो दया के देवता हैं।'

दोनों कुछ दूर फिर चुपचाप चले गये। तब कृष्णचन्द्र ने पूछा, 'तुम्हारी अम्माँ मुझसे कैसी सलाह करेंगी?'

बिन्नी का ध्यान जैसे टूट गया। 'मैं क्या जानूँ, कैसी सलाह करेंगी। मैं जानती कि तुम्हारे दादा आये हैं, तो न आती। मन में कहते होंगे, इतनी बड़ी लड़की अकेली मारी-मारी फिरती है।'

कृष्णचन्द्र कहकहा मारकर बोला, 'हाँ, कहते तो होंगे। मैं जाकर और जड़ दूंगा।"

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