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प्रेमचन्द की कहानियाँ 14

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :163
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9775
आईएसबीएन :9781613015124

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौदहवाँ भाग


नईम को अपने भाग्य-निर्माण का स्वर्ण-सुयोग प्राप्त हुआ। वह न त्यागी थे न ज्ञानी। सभी उनके चरित्र की दुर्बलता से परिचित थे, अगर कोई न जानता था, तो हुक्काम लोग। कुँवर साहब ने मुँह मागी मुराद पायी। नईम जब विष्णुपुर पहुँचा तो उसका असामान्य आदर-सत्कार हुआ। भेंटें चढ़ने लगीं, अर्दली के चपरासी, पेशकार, साईस, बावरची, खिदमतगार, सभी के मुँह तर और मुट्ठियाँ गर्म होने लगीं। कुँवर साहब के हवाली-मवाली रात-दिन भेरे रहते, मानो दामाद ससुराल आया हो।

एक दिन प्रातःकाल कुँवर साहब की माता आकर नईम के सामने हाथ बाँध कर खड़ी हो गई। नईम लेटा हुआ हुक्का पी रहा था। तप, संयम और वैधव्य की यह तेजस्वी प्रतिमा देखकर उठ बैठा।

रानी उसकी ओर वात्सल्य-पूर्ण लोचनों से देखती हुई बोली- हुजूर, मेरे बेटे का जीवन आपके हाथ है। आप ही उसके भाग्य-विधाता हैं, आपको उसी माता की सौगंध है, जिसके आप सुयोग्य पुत्र हैं, मेरे लाल की रक्षा कीजिएगा। मैं तन, मन, धन आपके चरणों पर अर्पण करती हूँ।

स्वार्थ ने दया के संयोग से नईम को पूर्ण रीति से वशीभूत कर लिया।

उन्हीं दिनों कैलास नईम से मिलने आया। दोनों मित्र बड़े तपाक से गले मिले। नईम ने बातों में यह सम्पूर्ण वृत्तांत कह सुनाया, और कैलास पर अपने कृत्य का औचित्य सिद्ध करना चाहा।

कैलास ने कहा- मेरे विचार में पाप सदैव पाप है, चाहे वह किसी आवरण में मंडित हो।
नईम- और मेरा विचार है कि अगर गुनाह से किसी की जान बचती हो, तो वह ऐन सवाब है। कुँवर साहब अभी नौजवान आदमी हैं। बहुत ही होनहार, बुद्विमान, उदार और सहृदय हैं। आप उनसे मिलें तो खुश हो जाएँ। उनका स्वभाव अत्यंत विनम्र है। मैनेजर जो यथार्थ में दुष्ट प्रकृति का मनुष्य था, बरबस कुँवर साहब को दिक़ किया करता था। यहाँ तक कि एक मोटरकार के लिए उसने रुपये न स्वीकार किए, न सिफारिश की। मैं यह नहीं कहता कि कुँवर साहब का यह कार्य स्तुत्य है, लेकिन बहस यह है कि उनको अपराधी सिद्ध करके उन्हें कालेपानी की हवा खिलाई जाए, या निरपराध सिद्ध करके उनकी प्राण रक्षा की जाए। और भाई, तुमसे तो कोई परदा नहीं है, पूरे 20 हजार की थैली है। बस मुझे अपनी रिपोर्ट में यह लिख देना होगा कि व्यक्तिगत वैमनस्य के कारण यह दुर्घटना हुई है। राजा साहब का इससे सम्पर्क नहीं। जो शहादतें मिल सकीं, उन्हें मैंने गायब कर दिया। मुझे इस कार्य के लिए नियुक्त करने में अधिकारियों की एक मसलहत थी। कुँवर साहब  हिन्दू हैं, इसलिए किसी हिन्दू कर्मचारी को नियुक्त न करके जिलाघीश ने यह भार मेरे सिर रखा। यह साम्प्रदायिक विरोध मुझे निस्पृह सिद्ध करने के लिए काफी है। मैंने दो-चार अवसरों पर कुछ तो हुक्काम की प्रेरणा से और कुछ स्वेच्छा से मुसलमानों के साथ पक्षपात किया, जिससे यह मशहूर हो गया है कि मैं हिन्दूओं का कट्टर दुश्मन हूँ। हिंदू लोग तो मुझे पक्षपात का पुतला समझते हैं। यह भ्रम मुझे आक्षेपों से बचाने के लिए काफी है। बताओ, हूँ तकदीरवर कि नहीं?

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