कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 14 प्रेमचन्द की कहानियाँ 14प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौदहवाँ भाग
ऊपर जाते ही रसिकलाल ने मालिक से कहा- क्षमा कीजिए हमें आने में देर हो गई। हम मोटर से नहीं पाँव-पाँव आये हैं आज यही सलाह हुई कि प्रकृति की छटा का आनन्द उठाते चलें। गुरुप्रसाद जी तो प्रकृति के उपासक हैं। इनका बस होता, तो आज चिमटा लिए या तो कहीं भीख माँग रहे होते, या किसी पहाड़ी गाँव में वटवृक्ष के नीचे बैठे पक्षियों का चहचहाना सुनते होते।
विनोद ने रद्दा जमाया- और आए भी तो सीधे रास्ते से नहीं, जाने कहाँ-कहाँ का चक्कर लगाते, खाक छानते। पैरों में जैसे सनीचर है।
अमर ने और रंग जमाया- पूरे सतजुगी आदमी हैं। नौकर-चाकर तो मोटरों पर सवार होते हैं और आप गली-गली मारे-मारे फिरते हैं। जब और रईस मीठी नींद के मजे लेते हैं, तो आप नदी के किनारे उषा का श्रृंगार देखते हैं।
मस्तराम ने फरमाया- कवि होना माने दीन दुनिया से मुक्त हो जाना है। गुलाब की एक पंखुडी लेकर उसमें न जाने क्या घंटों देखा करते हैं। प्रकृति की उपासना ने ही यूरोप के बड़े-बड़े कवियों को आसमान पर पहुँचा दिया है। यूरोप में होते, तो आज इनके द्वार पर हाथी झूमता होता। एक दिन एक बालक को रोते देखकर आप रोने लगे। पूछता हूँ- भाई क्यों रोते हो तो और रोते हैं। मुँह से आवाज नहीं निकलती। बड़ी मुश्किल से आवाज निकली।
विनोद- जनाब ! कवि का हृदय कोमल भावों का स्रोत है मधुर संगीत का भंडार है, अनंत का आईना है।
रसिक- क्या बात कही है आपने, अनंत का आईना है ! वाह ! कवि की सोहबत में आप भी कुछ कवि हुए जा रहे हैं।
गुरुप्रसाद ने नम्रता से कहा- मैं कवि नहीं हूँ और न मुझे कवि होने का दावा है। आप लोग मुझे जबरदस्ती कवि बनाए देते हैं। कवि स्रष्टा की वह अद्भुत् रचना है; जो पंचभूतों की जगह नौ रसों से बनती है।
मस्तराम- आपका यही एक वाक्य है, जिस पर सैकड़ों कविताएँ न्योछावर हैं। सुनी आपने रसिकलालजी, कवि की महिमा। याद कर लिजिए, रट डालिए।
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