कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 14 प्रेमचन्द की कहानियाँ 14प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौदहवाँ भाग
मस्तराम- रोज ही तो किसी-न-किसी कम्पनी का आदमी सिर पर सवार रहता है, मगर बाबू साहब किसी से सीधे मुँह बात नहीं करते।
विनोद- बस, एक यह कम्पनी है, जिसके तमाशों के लिए दिल बेकरार रहता है, नहीं तो जितने ड्रामें खेले जाते हैं, दो कौड़ी के। मैंने तमाशा देखना ही छोड़ दिया।
गुरुप्रसाद- नाटक लिखना बच्चों का खेल नहीं है, खूने जिगर पीना पड़ता है। मेरे खयाल में एक नाटक लिखने के लिए पाँच साल का समय भी काफी नहीं। बल्कि अच्छा ड्रामा जिंदगी में एक ही लिखा जा सकता है। यों कलम घिसना दूसरी बात है। बड़े-बड़े धुरंधर आलोचकों का यही निर्णय है कि आदमी जिंदगी में एक ही नाटक लिख सकता है। रूस, फ्रांस, जर्मनी सभी देशों के ड्रामें पढ़े; पर कोई-न-कोई दोष सभी में मौजूद। किसी में भाव है तो भाषा नहीं, भाषा है तो भाव नहीं। हास्य है तो गान नहीं, गान है तो हास्य नहीं, जब तक भाव भाषा हास्य और गान चारों अंग पूरे न हों, उसे ड्रामा कहना ही न चाहिए। मैं तो बहुत ही तुच्छ आदमी हूँ, कुछ आप लोगों की सोहबत में शुदबुद आ गया। मेरी रचना की हस्ती ही क्या? लेकिन ईश्वर ने चाहा, तो ऐसे दोष आपको न मिलेंगे।
विनोद- जब आप उस विषय के मर्मज्ञ हैं, तो दोष रह ही कैसे सकते हैं ! रसिक-दस साल तक तो आपने केवल संगीत-कला का अभ्यास किया है। घर के हजारों रुपये उस्तादों को भेंट कर दिए, फिर भी दोष रह जाए, तो दुर्भाग्य है।
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