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प्रेमचन्द की कहानियाँ 15

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9776
आईएसबीएन :9781613015131

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पन्द्रहवाँ भाग


लुईसा ने फिर मेरा हाथ पकड़ लिया और एहसान में डूबे हुए लहजे में बोली- सन्तरी, भगवान् तुम्हें इसका फल दे। मगर फौरन उसे संदेह हुआ कि शायद यह सिपाही आइन्दा किसी मौके पर यह भेद न खोल दे इसलिए अपने और भी इत्मीनान के खयाल से उसने कहा- मेरी आबरू अब तुम्हारे हाथ है।

मैंने विश्वास दिलाने वाले ढंग से कहा- मेरी ओर से आप बिल्कुल इत्मीनान रखिए।

‘कभी किसी से नहीं कहोगे न?’

‘कभी नहीं।’

‘कभी नहीं?’

‘हां, जीते जी कभी नहीं।’

‘अब मुझे इत्मीनान हो गया, सन्तरी। लुईसा तुम्हारी इस नेकी और एहसान को मौत की गोद में जाते वक्त भी न भूलेगी। तुम जहां रहोगे तुम्हारी यह बहन तुम्हारे लिए भगवान से प्रार्थना करती रहेगी। जिस वक्त तुम्हें कभी जरूरत हो, मेरी याद करना। लुईसा दुनिया के उस पार होगी तब भी तुम्हारी खिदमत के लिए हाजिर होगी। वह आज से तुम्हें अपना भाई समझती है। सिपाही की जिन्दगी में ऐसे मौके आते हैं, जब उसे एक खिदमत करने वाली बहन की जरूरत होती है। भगवान न करे तुम्हारी जिन्दगी में ऐसा मौका आयें लेकिन अगर आये तो लुईसा अपना फर्ज अदा करने में कभी पीछे न रहेगी। क्या मैं अपने नेकमिजाज भाई का नाम पूछ सकती हूं?’

बिजली एक बार चमक उठी। मैंने देखा लुईसा की आंखों में आंसू भरे हुए हैं। बोला-लुईसा, इन हौसला बढ़ाने वाली बातों के लिए मैं तुम्हारा हृदय से कृतज्ञ हूं। लेकिन मैं जो कुछ कर रहा हूं, वह नैतिकता और हमदर्दी के नाते कर रहा हूं। किसी इनाम की मुझे इच्छा नहीं है। मेरा नाम पूछकर क्या करोगी?

लुईसा ने शिकायत के स्वर में कहा- क्या बहन के लिए भाई का नाम पूछना भी फौजी कानून के खिलाफ है?

इन शब्दों में कुछ ऐसी सच्चाई, कुछ ऐसा प्रेम, कुछ ऐसा अपनापन भरा हुआ था, कि मेरी आंखों मे बरबस आँसू भर आये। बोला- नहीं लुईसा, मैं तो सिर्फ यही चाहता हूं कि इस भाई जैसे सलूक में स्वार्थ की छाया भी न रहने पाये। मेरा नाम श्रीनाथ सिंह है।

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