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प्रेमचन्द की कहानियाँ 15

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9776
आईएसबीएन :9781613015131

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पन्द्रहवाँ भाग


मेरा आश्चर्य हर क्षण बढ़ता जा रहा था और लेफ्टिनेन्ट डा. चन्द्रसिंह भी सवाल-भरी नजरों से एक बार मेरी तरफ और दूसरी बार कप्तान नाक्स के चेहरे की तरफ देख रहे थे। दो मिनट तक खामोश रहने के बाद कप्तान नाक्स ने सर उठाया और एक लम्बी सांस लेकर बोले- क्यों लेफ्टिनेंट चौधरी, तुम्हें याद है एक बार एक अंग्रेज सिपाही ने तुम्हें बुरी गाली दी थी?

मैंने कहा- हां,खूब याद है। वह कारपोरल था मैंने उसकी शिकायत कर दी थी और उसका कोर्टमार्शल हुआ था। वह कारपोरल के पद से गिर कर मामूली सिपाही बना दिया गया था। हां, उसका नाम भी याद आ गया क्रिप या क्रुप...।

कप्तान नाक्स ने बात काटते हुए कहा- किरपिन। उसकी और मेरी सूरत में आपको कुछ मेल दिखाई पड़ता है? मैं ही वह किरपिन हूं। मेरा नाम सी. नाक्स है, किरपिन नाक्स। जिस तरह उन दिनों आपको लोग श्रीनाथ कहते थे उसी तरह मुझे भी किरपिन कहा करते थे।

अब जो मैंने गौर से नाक्स की तरफ देखा तो पहचान गया। बेशक वह किरपिन ही था। मैं आश्चर्य से उसकी ओर ताकने लगा। लुईसा से उसका क्या सम्बन्ध हो सकता है, यह मेरी समझ में उस वक्त भी न आया। कप्तान नाक्स बोले- आज मुझे सारी कहानी कहनी पड़ेगी। लेफ्टिनेण्ट चौधरी, तुम्हारी वजह से जब मैं कारपोल से मामूली सिपाही बनाया गया और जिल्लत भी कुछ कम न हुई तो मेरे दिल में ईर्ष्या और प्रतिशोध की लपटें-सी उठने लगीं। मैं हमेशा इसी फिक्र में रहता था कि किस तरह तुम्हें जलील करूं, किस तरह अपनी जिल्लत का बदला लूं। मैं तुम्हारी एक-एक हरकत को एक-एक बात को ऐब ढूंढने वाली नजरों से देखा करता था। इन दस-बारह सालों में तुम्हारी सूरत बहुत कुछ बदल गई और मेरी निगाहों में भी कुछ फर्क आ गया है जिसके कारण मैं तुम्हें पहचान न सका लेकिन उस वक्त तुम्हारी सूरत हमेशा मेरी आँखों के सामने रहती थी। उस वक्त मेरी जिन्दगी की सबसे बड़ी तमन्ना यही थी कि किसी तरह तुम्हें भी नीचे गिराऊं। अगर मुझे मौका मिलता तो शायद मैं तुम्हारी जान लेने से भी बाज न आता।

कप्तान नाक्स फिर खामोश हो गये। मैं और डाक्टर चन्द्रसिंह टकटकी लगाये कप्तान नाक्स की तरफ देख रहे थे। नाक्स ने फिर अपनी दास्तान शुरू की- उस दिन, रात को जब लुईसा तुमसे बातें कर रही थी, मैं अपने कमरे मैं बैठा हुआ तुम्हें दूर से देख रहा था। मुझे उस वक्त मालूम था कि वह लुईसा है। मैं सिर्फ यह देख रहा था कि तुम पहरा देते वक्त किसी औरत का हाथ पकड़े उससे बातें कर रहे हो। उस वक्त मुझे जितनी पाजीपन से भरी हुई खुशी हुई वह बयान नहीं कर सकता। मैंने सोचा, अब इसे जलील करूंगा। बहुत दिनों के बाद बच्चा फंसे हैं। अब किसी तरह न छोडूंगा। यह फैसला करके मैं कमरे से निकला और पानी में भीगता हुआ तुम्हारी तरफ चला। लेकिन जब तक मैं तुम्हारे पास पहुंचूं, लुईसा चली गई थी। मजबूर होकर मैं अपने कमरे में लौट आया। लेकिन फिर भी निराश न था, मैं जानता था कि तुम झूठ न बोलोगे और जब मैं कमाण्डिंग अफसर से तुम्हारी शिकायत करूंगा तो तुम अपना कसूर मान लोगे। मेरे दिल की आग बुझाने के लिए इतना इम्मीनान काफी था। मेरी आरजू पूरी होने में अब कोई संदेह न था।

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