कहानी संग्रह >> प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16 प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग
किन्तु आनंदी की दशा सँभलने की जगह दिनोंदिन गिरती ही गई। कमजोरी से उठना-बैठना कठिन हो गया। किसी वैद्य या डाक्टर को उसकी अवस्था न दिखाई जाती थी। गोपीनाथ दवाएँ लाते थे, आनंदी उसका सेवन करती थी, और दिन-दिन निर्बल होती थी। पाठशाला से उसने छुट्टी ले ली थी। किसी से मिलती-जुलती भी नहीं थी। बार-बार चेष्ठा करती कि मथुरा चली जाऊँ, किन्तु एक अनजान नगर में अकेले कैसे रहूँगी, न कोई आगे न पीछे; कोई एक घूँट पानी देनेवाला भी नहीं यह सब सोचकर उसकी हिम्मत टूट जाती थी। इसी-सोच विचार और हैस-बैस में दो महीने गुजर गए और अंत में विवश होकर आनंदी ने निश्चय किया कि अब चाहे कुछ सिर पर बीते, यहाँ से चल ही दूँ अगर सफर में मर भी जाऊँगी तो क्या चिंता! उनकी बदनामी तो न होगी। उनके यश को कलंक तो न लगेगा। मेरे पीछे ताने तो न सुनने पड़ेंगे। सफर की तैयारियाँ करने लगी। रात को जाने का मुहूर्त था कि सहसा संध्याकाल ही से प्रसव-पीड़ा होने लगी, और ग्यारह बजते-बजते एक नन्हा-सा दुर्बल सतमासा बालक प्रसव हुआ। बच्चे के रोने की आवाज सुनते ही लाला गोपीनाथ बेतहाशा ऊपर से उतरे और गिरते-पड़ते घर भागे। आनंदी ने इस भेद को अंत तक छिपाए रखा, अपनी दारुण प्रसव पीड़ा का हाल किसी से न कहा, दाई को सूचना न दी, मगर जब बच्चे के रोने की ध्वनि मदरसे में गूँजी; तो क्षण-मात्र में दाई सामने आकर खड़ी हो गई। नौकरानियों को पहले ही से शंकाएँ थीं। उन्हें कोई आश्चर्य न हुआ।
जब दाई ने आनंदी को पुकारा, तो वह सचेत हो गई। देखा, तो बालक रो रहा है।
दूसरे दिन दस बजते-बजते यह समाचार सारे शहर में फैल गया। घर-घर चर्चा होने लगी। कोई आश्चर्य करता, कोई घृणा करता, कोई हँसी उड़ाता था। लाला गोपीनाथ के छिद्रान्वेषियों की संख्या कम न थी। पंडित अमरनाथ उनके मुखिया थे। उन लोगों ने लालाजी की निंदा करनी शुरू की। जहाँ देखिए, वहीं दो-चार सज्जन बैठे गोपनीय भाव से इसी घटना की आलोचना करते नजर आते थे। कोई कहता था, इस स्त्री के लक्षण पहले ही से विदित हो रहे थे। अधिकांश आदमियों की राय में गोपीनाथ ने बुरा किया। यदि ऐसा ही प्रेम ने जोर मारा था, तो उन्हें निडर होकर विवाह कर लेना चाहिए था। यह काम गोपीनाथ का है, इसमें किसी को भ्रम न था। केवल कुशल-समाचार पूछने के बहाने लोग उनके घर जाते और दो-चार अन्योक्तियाँ सुनाकर चले आते थे। इसके विरुद्ध आनंदी पर लोगों को दया आती थी। पर लालाजी के ऐसे भक्त भी थे, लालाजी के माथे यह कलंक मढ़ना पाप समझते थे। गोपीनाथ ने स्वयं मौन धारण कर लिया था। सबकी भली-बुरी बातें सुनते थे, पर मुँह न खोलते थे। इतनी हिम्मत न थी कि सबसे मिलना छोड़ दें।
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