कहानी संग्रह >> प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16 प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग
गोपीनाथ- जी हाँ सरासर। अब काम करने में उनका जी नहीं लगता। बैठी हुई योग और ज्ञान के ग्रन्थ पढ़ा करती हैं। कुछ कहता हूँ, तो कहती हैं- ‘मैं अब और अधिक कुछ नहीं कर सकती। कुछ परलोक की भी चिंता करूँ कि चौबीसों घंटे पेट के धंधों में ही लगी रहूँ? पेट के लिए पाँच घंटे बहुत हैं। यहाँ आकर मैंने अपना स्वास्थ्य खो दिया। एक बार कठिन रोग में ग्रस्त हो गई, क्या कमेटी ने मेरी दवा-दारू का खर्च दे दिया? कोई बात पूछने भी आया? फिर अपनी जान क्यों दूँ?' सुना है, घरों में मेरी बदगोई भी किया करती है।
अमरनाथ मार्मिक भाव से बोले- ये बातें मुझे पहले ही मालूम थीं।
दो साल और गुजर गए। रात का समय था। कन्या-पाठशाला के ऊपरवाले कमरे में गोपीनाथ मेज के सामने कुरसी पर बैठे हुए थे। सामने आनंदी कोच पर लेटी हुई थी। उसका मुख बहुत म्लान हो रहा था। कई मिनट तक दोनों विचार में मग्न थे। अंत में गोपीनाथ बोले- मैंने पहले ही महीने में तुमसे कहा था कि मथुरा चली जाओ।
आनंदी- वहाँ दस महीने क्योंकर रहती! मेरे पास इतने रुपये कहाँ थे, और न तुम्हीं ने कोई प्रबंध करने का आश्वासन दिया। मैंने सोचा, तीन चार महीने यहाँ रहूँ, तब तक किफायत करके कुछ बचा लूँगी, और तुम्हारी किताब से भी कुछ रुपये मिल जायँगे। तब मथुरा चली जाऊँगी। मगर यह क्या मालूम था कि बीमारी भी इसी अवसर की ताक में बैठी हुई है। मेरी दशा दो-चार दिन के लिए भी सँभली, और मैं चली। इस दशा में तो मेरे लिए यात्रा करना असम्भव है।
गोपीनाथ- मुझे भय है कि कहीं बीमारी तूल न खींचे। संग्रहणी असाध्य रोग है।महीने-दो महीने यहाँ और रहना पड़ गया, तो बात खुल जायगी।
आनंदी- (चिढ़कर) खुल जायगी, खुल जाए। अब इससे कहाँ तक डरूँ!
गोपीनाथ- मैं भी न डरता, अगर मेरे कारण नगर की कई संस्थाओं का जीवन संकट में न पड़ जाता। इसलिए मैं बदनामी से डरता हूँ। समाज के बंधन निरे पाखंड हैं। मैं उन्हें सम्पूर्णतः अन्याय समझता हूँ। इस विषय में तुम मेरे विचारों को भली-भाँति जानती हो, पर करूँ क्या? दुर्भाग्यवश मैंने जातिसेवा का भार अपने ऊपर ले लिया है। उसी का फल है कि आज मुझे अपने माने हुए सिद्धांतों को तोड़ना पड़ रहा है और जो वस्तु मुझे प्राणों से भी प्रिय है, उसे यों निर्वासित करने पर मजबूर हो रहा हूँ।
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