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प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9777
आईएसबीएन :9781613015148

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग


यह सोचते हुए उसने स्वामी अभेदानंद की एक पुस्तक उठायी, और उसके एक अध्याय का अनुवाद करने लगी। अब उसकी जीविका का एकमात्र यही आधार था। सहसा किसी ने धीरे से द्वार खटखटाया वह चौंक पड़ी लाला गोपीनाथ की आवाज मालूम हुई। उसने तुरंत द्वार खोल दिया। गोपीनाथ आकर खड़े हो गए और सोते हुए बालक को प्यार से देखकर बोले- आनंदी मैं तुम्हें मुँह दिखाने के लायक नहीं हूँ। मैं अपनी भीरुता और नैतिक दुर्बलता पर अत्यंत लज्जित हूँ। यद्यपि मैं जानता हूँ कि मेरी बदनामी जो कुछ होनी थी। वह, हो चुकी। मेरे नाम से चलने वाली संस्थाओं को जो हानि पहुँचनी थी, पहुँच चुकी। अब असम्भव है कि मैं जनता को अपना मुँह फिर दिखाऊँ, और न वह मुझ पर विश्वास ही कर सकती है। इतना जानते हुए भी मुझमें साहस नहीं कि अपने कुकृत्य का भार अपने सिर ले लूँ। मैं पहले सामाजिक शासन की रत्ती भर परवाह न करता था। पर अब पग-पग पर उसके भय से मेरे प्राण काँपने लगते हैं। धिक्कार है मुझ पर कि मेरे कारण तुम्हारे ऊपर ऐसी-ऐसी विपत्तियाँ पड़ीं। लोक-निंदा, रोग शोक, निर्धनता सभी का सामना करना पड़ा और मैं अलग-अलग रहा, मानों मुझसे कोई प्रयोजन ही नहीं। पर मेरा हृदय ही जानता है कि मुझे उसकी कितनी पीड़ा होती थी। कितनी ही बार इधर आने का निश्चय किया और फिर हिम्मत हार गया। अब मुझे विदित हो गया कि मेरी सारी दार्शनिकता केवल हाथी का दाँत थी। मुझमें क्रिया शक्ति नहीं है। लेकिन इसके साथ ही तुमसे अलग रहना भी मेरे लिए असह्य है। तुमसे दूर रहकर मैं जिंदा नहीं रह सकता। प्यारे बच्चे को देखने के लिए मैं कितनी ही बार लालायित हो गया हूँ। पर यह आशा कैसे करूँ कि मेरी चरित्र-हीनता का ऐसा प्रत्यक्ष प्रमाण पाने के बाद तुम्हें मुझसे घृणा न हो गई होगी।

आनंदी- स्वामी, आपके मन में ऐसी बातों का आना मुझ पर घोर अन्याय है। मैं तो ऐसी बुद्धिहीन हूँ कि केवल अपने स्वार्थ के लिए आपको कलंकित करूँ। मैं आपको अपना इष्टदेव समझती हूँ, और सदैव समझूँगी। मैं भी अब आपके वियोग-दुख को नहीं सह सकती। कभी-कभी आपके दर्शन पाती रहूँ, यही जीवन की सबसे बड़ी अभिलाषा है।

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