कहानी संग्रह >> प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16 प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16प्रेमचंद
|
4 पाठकों को प्रिय 171 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग
इस तरह दिल में ज़िन्दगी का नक्शा बनाकर मगनदास अपनी मर्दाना हिम्मत के भरोसे पर नागपुर की तरफ़ चला, उस मल्लाह की तरह जो किश्ती और पाल के बगैर नदी की उमड़ती हुई लहरों में अपने को डाल दे।
शाम के वक़्त सेठ मक्खनलाल के सुंदर बगीचे में सूरज की पीली किरणें मुरझाये हुए फूलों से गले मिलकर विदा हो रही थीं। बाग के बीच में एक पक्का कुआँ था और एक मौलसिरी का पेड़। कुँए के मुँह पर अंधेरे की नीली-सी नकाब थी, पेड़ के सिर पर रोशनी की सुनहरी चादर। इसी समय एक नौजवान थका-मांदा कुएँ पर आया और लोटे से पानी भरकर पीने के बाद जगत पर बैठ गया।
मालिन ने पूछा- कहाँ जाओगे?
मगनदास ने जवाब दिया कि जाना तो था बहुत दूर, मगर यहीं रात हो गई। यहाँ कहीं ठहरने का ठिकाना मिल जाएगा?
मालिन- चले जाओ सेठ जी की धर्मशाला में, बड़े आराम की जगह है।
मगनदास- धर्मशाला में तो मुझे ठहरने का कभी संयोग नहीं हुआ। कोई हर्ज़ न हो तो यहीं पड़ा रहूँ। यहाँ कोई रात को रहता है?
मालिन- भाई, मैं यहाँ ठहरने को न कहूँगी। यह बाई जी की बैठक है। झरोखे में बैठकर सैर किया करती हैं। कहीं देख-भाल लें तो मेरे सिर में एक बाल भी न रहे।
मगनदास- बाई जी कौन?
मालिक- यही सेठ जी की बेटी। इन्दिरा बाई।
मगनदास- यह गजरे उन्हीं के लिए बना रही हो क्या?
मालिन- हाँ, और सेठ जी के यहाँ है ही कौन? फूलों के गहने बहुत पसन्द करती हैं।
मगनदास- शौकीन औरत मालूम होती हैं?
|