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प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9777
आईएसबीएन :9781613015148

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग


उस वक़्त इन्दिरा अपने झरोखे पर बैठी हुई इन दोनों की बातें सुन रही थी। कैसा संयोग है कि स्त्री को स्वर्ग की सब सिद्धियाँ प्राप्त हैं और उसका पति आवारों की तरह मारा-मारा फिर रहा है। उसे रात काटने का ठिकाना नहीं।

मगनदास निराश विचारों में डूबा हुआ शहर से बाहर निकल आया और एक सराय में ठहरा जो सिर्फ इसलिए मशहूर थी, कि वहाँ शराब की एक दुकान थी। यहाँ आस-पास से मजदूर लोग आ-आकर अपने दुख को भुलाया करते थे। जो भूले-भटके मुसाफिर यहाँ ठहरते, उन्हें होशियारी और चौकसी का व्यावहारिक पाठ मिल जाता था।

मगनदास थका-मांदा था ही, एक पेड़ के नीचे चादर बिछाकर सो रहा और जब सुबह को नींद खुली तो उसे किसी पीर-औलिया के ज्ञान की सजीव दीक्षा का चमत्कार दिखाई पड़ा जिसकी पहली मंजिल वैराग्य है। उसकी छोटी-सी पोटली, जिसमें दो-एक कपड़े और थोड़ा-सा रास्ते का खाना और लुटिया-डोर बंधी हुई थी, गायब हो गई। उन कपड़ों को छोड़कर जो उसके बदन पर थे अब उसके पास कुछ भी न था और भूख, जो कंगाली में और भी तेज हो जाती है, उसे बेचैन कर रही थी। मगर वह दृढ़ स्वभाव का आदमी था, उसने किस्मत का रोना न रोया और किसी तरह गुजर करने की तदबीरें सोचने लगा। लिखने और गणित में उसे अच्छा अभ्यास था मगर इस हैसियत में उससे फायदा उठाना असम्भव था। उसने संगीत का बहुत अभ्यास किया था। किसी रसिक रईस के दरबार में उसकी क़द्र हो सकती थी। मगर उसके पुरुषोचित अभिमान ने इस पेशे को अख्यितार करने इज़ाजत न दी। हाँ, वह आला दर्जे का घुड़सवार था और यह फ़न मज़े में पूरी शान के साथ उसकी रोज़ी का साधन बन सकता था यह पक्का इरादा करके उसने हिम्मत से कदम आगे बढ़ाये। ऊपर से देखने पर यह बात यकीन के काबिल नहीं मालूम होती मगर वह अपना बोझ हलका हो जाने से इस वक्त बहुत उदास नहीं था। मर्दाना हिम्मत का आदमी ऐसी मुसीबतों को उसी निगाह से देखता है,जिसमें एक होशियार विद्यार्थी परीक्षा के प्रश्नों को देखता है उसे अपनी हिम्मत आजमाने का, एक मुश्किल से जूझने का मौका मिल जाता है उसकी हिम्मत अजनाने ही मजबूत हो जाती है। अकसर ऐसे मार्के मर्दाना हौसले के लिए प्रेरणा का काम देते हैं। मगनदास इस जोश़ से कदम बढ़ाता चला जाता था कि जैसे कामयाबी की मंज़िल सामने नजर आ रही है। मगर शायद वहाँ के घोड़ों ने शरारत और बिगड़ैलपन से तौबा कर ली थी या वे स्वाभाविक रूप से बहुत मज़े मे धीमे-धीमे चलने वाले थे। वह जिस गाँव में जाता निराशा को उकसाने वाला जवाब पाता। आख़िरकार शाम के वक़्त जब सूरज अपनी आख़िरी मंज़िल पर जा पहुँचा था, उसकी कठिन मंज़िल तमाम हुई। नागरघाट के ठाकुर अटलसिंह ने उसकी चिन्ता को समाप्त किया।

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