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प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9777
आईएसबीएन :9781613015148

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग


मगनदास को दिल्ली आए हुए तीन महीने गुजर चुके हैं। इस बीच उसे सबसे बड़ा जो निजी अनुभव हुआ वह यह था कि रोज़ी की फ़िक्र और धन्धों की बहुतायत से उमड़ती हुई भावनाओं का ज़ोर कम किया जा सकता है। ड़ेढ साल पहले का बेफ़िक्र नौजवान अब एक समझदार और सूझ-बूझ रखने वाला आदमी बन गया था। सागर घाट के उन कुछ दिनों से उसे रिआया की इन तकलीफ़ों का निजी ज्ञान हो गया था जो कारिन्दों और मुख़्तारों की सख़्तियों की बदौलत उन्हें उठानी पड़ती हैं। उसने उसे रियासत के इन्तजाम में बहुत मदद दी और गो कर्मचारी दबी जबान से उसकी शिकायत करते थे। और अपनी किस्मत और जमाने के उलट-फेर को कोसते थे मगर रिआया ख़ुश थी। हाँ, जब वह सब धंधों से फुरसत पाता तो एक भोली-भाली सूरतवाली लड़की उसके ख़याल के पहलू में आ बैठती और थोड़ी देर के लिए सागर घाट का वह हरा-भरा झोपड़ा और उसकी मस्तियाँ आँखों के सामने आ जातीं। सारी बातें एक सुहाने सपने की तरह याद आ आकर उसके दिल को मसोसने लगतीं लेकिन कभी-कभी ख़ुद-बख़ुद उसका ख्याल इन्दिरा की तरफ भी जा पहुँचता गो उसके दिल में रम्भा की वही जगह थी मगर किसी तरह उसमें इन्दिरा के लिए भी एक कोना निकल आया था। जिन हालातों और आफ़तों ने उसे इन्दिरा से बेजार कर दिया था वह अब रुख़सत हो गयी थीं। अब उसे इन्दिरा से कुछ हमदर्दी हो गयी। अगर उसके मिजाज में घमण्ड है, हुकूमत है, तकल्लुफ़ है, शान है तो यह उसका कसूर नहीं, यह रईसज़ादों की आम कमजोरियां है, यही उनकी शिक्षा है। वे बिलकुल बेबस और मजबूर हैं। इन बदले हुए और संतुलित भावों के साथ जहाँ वह बेचैनी के साथ रम्भा की याद को ताज़ा किया करता था वहाँ इन्दिरा का स्वागत करने और उसे अपने दिल में जगह देने के लिए तैयार था। वह दिन दूर नहीं था जब उसे उस आजमाइश का सामना करना पड़ेगा। उसके कई आत्मीय अमीराना शान-शौकत के साथ इन्दिरा को विदा कराने के लिए नागपुर गए हुए थे। मगनदास की तबियत आज तरह-तरह के भावों के कारण, जिनमें प्रतीक्षा और मिलन की उत्कंठा विशेष थी, उचाट-सी हो रही थी। जब कोई नौकर आता तो वह सम्हल बैठता कि शायद इन्दिरा आ पहुँची आखिर शाम के वक़्त जब दिन और रात गले मिले रहे थे, जनानखाने में ज़ोर-शोर से गाने की आवाज़ों ने बहू के पहुँचने की सूचना दी।

सुहाग की सुहानी रात थी। दस बज गये थे। खुले हुए हवादार सहन में चांदनी छिटकी हुई थी, वह चांदनी जिसमें नशा है, आरजू है और खिंचाव है। गमलों में खिले हुए गुलाब और चम्पा के फूल चांद की सुनहरी रोशनी में ज़्यादा गम्भीर ओर ख़ामोश नजर आते थे। मगनदास इन्दिरा से मिलने के लिए चला। उसके दिल से लालसाएँ जरूर थीं मगर एक पीड़ा भी थी। दर्शन की उत्कण्ठा थी मगर प्यास से खाली। मुहब्बत नहीं, प्राणों का खिंचाव था जो उसे खींचे लिए जाता था। उसके दिल में बैठी हुई रम्भा शायद बार-बार बाहर निकलने की कोशिश कर रही थी। इसीलिए दिल में धड़कन हो रही थी। वह सोने के कमरे के दरवाज़े पर पहुँचा। रेशमी पर्दा पड़ा हुआ था। उसने पर्दा उठा दिया अन्दर एक औरत सफेद साड़ी पहने खड़ी थी। हाथ में चन्द खूबसूरत चूड़ियों के सिवा उसके बदन पर एक जेवर भी न था। ज्योंही पर्दा उठा और मगनदास ने अन्दर क़दम रक्खा वह मुस्कराती हुई उसकी तरफ बढ़ी। मगनदास ने उसे देखा और चकित होकर बोला- रम्भा! और दोनों प्रेमावेश से लिपट गये। दिल में बैठी हुई रम्भा बाहर निकल आई थी।

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