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प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9777
आईएसबीएन :9781613015148

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग


मैंने संदूक से 5 रु० निकाले और उसे दे कर बोला– यह लो, यह तुम्हारे पुरुषार्थ का इनाम है। मैं नहीं जानता था कि तुम्हारा हृदय इतना उदार, इतना वीररसपूर्ण है।

गृहदाह में जलनेवाले वीर, रणक्षेत्र के वीरों से कम महत्वशाली नहीं होते।

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5. दरवाजा

मेरी जान हमेशा आफ़त में रहती है। पहले तो घर के लड़के दम नहीं लेने देते। मेरे दोनों पट्टों को जोर से टकराना उनका खेल है। मेरी पसलियाँ चूर हो जाती हैं। दूसरे हवा के तेज झोंके और भी बलाए-जाँ इस बेरहमी से मुझे अस्त-व्यस्त करते हैं कि परमात्मा खैर करे, इस पर तुर्रा ये कि मेरी दु:खभरी चीख पर गृहस्वामी को भी तरस नहीं आता। वह उल्टे मुझी पर नाराज़ होते हैं। मैं घर का राज़दार हूँ और दिखावे को निभाना मेरा काम है। अक्सर घर में गृहस्वामी के मौजूद होने पर भी मुझे बंद कर दिया जाता है। खासकर किसी चंदे की वसूलियाँ, बजाज के तकाजे के दिन मुझे बंद कर दिया जाता है और वे अपना-सा मुँह लेकर लौट जाते हैं। मैं छाती तानकर अपने आका को लज्जा और बहाने-बाज़ी से बचा लेता हूँ। मगर पिछले दिनों जब मुझे बंद देखकर डाकिया मनीऑर्डर वापिस ले गया तो गृहस्वामी मुझी को कोसने लगे।

मेरी नेकियों का कोई भी नाम नहीं लेता, मगर बुराइयों पर सबके सब क्रोधित हो जाते हैं, जमाने का अजब ढंग है। मुझे अपने कर्त्तव्यों का पालन करने देने में कितनी गालियाँ खानी पड़ती हैं। मुझे बंद पाकर स्वादिष्ठ भोजन की ख्वाहिश से बेताब कुत्ते कितने क्रुद्ध हो जाते हैं और कितने मायूस और चोर तो मेरी जान के गाहक हैं। कभी बराली घूँसे मारते है, भी चूल खिसका देते हैं। कभी कुछ सारे जमाने के भिखरियों को भी मुझसे अप्रकट द्वेष है। मुझे बंद पाकर कोसते हैं और नाकाम वापिस लौट जाते हैं।

आह!! बीती उम्र की याद कितनी दु:खपूर्ण है? मैंने कभी अच्छे दिन देखे हैं। वह दिन नहीं भूलता, जब स्वामिनी नई-नवेली दुल्हन बनी, गहनों से लदी, शर्म से सर झुकाए पालकी से उतरी थीं। उस वक्त पहले मैंने ही उनकी मुख-दीप्ति का नज़ारा किया था और उनके कमल-से नाजुक पैरों का चुम्बन लिया था। एक रोज जब बाबूजी शाम को किसी वजह से घर नहीं आए, तो इंतजार में बैठे-बैठे उकताकर वह नवेली दुल्हन हया से गर्दन झुकाए, दीवारों से लजाती मेरी गोद में आकर खड़ी हो गई और कितनी देर तक मेरे पहलुओं में लिपटी हुई सामने के खाली मैदान की तरफ़ ताकती रही। उसके दिल में उस वक्त कैसी धड़क थी और आँखों में कितनी चिंतापूर्ण उत्कंठा। बाबू साहब को आड़े से आते देखकर वह किस तरह खुशी से उमड़ी हुई जल्दी से घर में चली गई, यह आनंदपूर्ण बातें कभी भूल सकती हैं? बाबूजी ज्यूँ-ज्यूँ बूढ़े होते जाते हैं, उन्हें मुझसे उज्र होता जाता है। अब वह अक्सर मेरे पहलुओं में बैठे रहते हैं, शायद उन्हें मेरी जुदाई का गम सताया करता है। अभी जब वह बीमार थे तो मालकिन कितनी बार मुझसे लिपट-लिपटकर रोई थीं, मालूम नहीं क्या।

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