कहानी संग्रह >> प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16 प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग
इस घर में कौन कदम रखेगा, अगर उसे मालूम हो जाए कि उसे कभी यहीं से जाने का अख्तियार नहीं है। मैं घर और बाहर के बीच की कड़ी हूँ। बाहर कितना विस्तृत मैदान है। कैसा सुहाना घास का मैदान, हरियाली ही हरियाली, कैसी मुस्कराती हुई आबादियाँ, कितनी खूबसूरत दुनियाँ। घर सीमित है, बाहर की कोई इंतहा नहीं। सीमित और असीमित के बीच मिलन का संबंध हूँ। कुतरे को बहर से मिलाना मेरा काम है। मैं एक किश्ती हूँ मृत्यु से जीवन को ले जाने के लिए।
6. दारोगाजी
कल शाम को एक जरूरत से तांगे पर बैठा हुआ जा रहा था कि रास्ते में एक और महाशय तांगे पर आ बैठे। तांगेवाला उन्हें बैठाना तो न चाहता था, पर इनकार भी न कर सकता था। पुलिस के आदमी से झगड़ा कौनमोल ले। यह साहब किसी थाने के दारोगा थे। एक मुकदमे की पैरवी करने सदर आये थे! मेरी आदत है कि पुलिसवालों से बहुत कम बोलता हूँ। सच पूछिए, तो मुझे उनकी सूरत से नफरत है। उनके हाथों प्रजा को कितने कष्ट उठाने पड़ते हैं, इसका अनुभव इस जीवन में कई बार कर चुका हूँ। मैं जरा एक तरफ खिसक गया और मुँह फेरकर दूसरी ओर देखने लगा कि दारोगाजी बोले, 'जनाब, यह आम शिकायत है कि पुलिसवाले बहुत रिश्वत लेते हैं; लेकिन यह कोई नहीं देखता कि पुलिसवाले रिश्वत लेने के लिए कितने मजबूर किये जाते हैं। अगर पुलिसवाले रिश्वत लेना बन्द कर दें तो मैं हलफ से कहता हूँ, ये जो बड़े-बड़े ऊँची पगड़ियोंवाले रईस नजर आते हैं, सब-के-सब जेलखाने के अन्दर बैठे दिखाई दें। अगर हर एक मामले का चालान करने लगें, तो दुनिया पुलिसवालों को और भी बदनाम करे। आपको यकीन न आयेगा जनाब, रुपये की थैलियाँ गले लगाई जाती हैं। हम हजार इनकार करें, पर चारों तरफ से ऐसे दबाव पड़ते हैं कि लाचार होकर लेना ही पड़ता है।
मैंने उपहास के भाव से कहा, 'ज़ो काम रुपये लेकर किया जाता है, वही काम बिना रुपये लिये भी तो किया जा सकता है।'
दारोगाजी हँसकर बोले, 'वह तो गुनाह बेलज्जत होगा, बंदापरवर। पुलिस का आदमी इतना कट्टर देवता नहीं होता, और मेरा खयाल है कि शायद कोई इंसान भी इतना बेलौस नहीं हो सकता। और सींगों के लोगों को भी देखता हूँ, मुझे तो कोई देवता न मिला ...'
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