कहानी संग्रह >> प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16 प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग
आनंदीबाई रईसों के घरों में जाती हैं, और स्त्रियों में शिक्षा का प्रचार करती हैं। उनके वस्त्राभूषणों से सुरुचि का बोध होता है। हैं भी उच्च कुल की, इसलिए शहर में उनका बड़ा सम्मान होता है। लड़कियाँ उन पर जान देती हैं। उन्हें माँ कहकर पुकारती हैं। गोपीनाथ पाठशाला की उन्नति देख-देखकर फूले नहीं समाते। जिससे मिलते हैं, आनंदीबाई का ही गुणगान करते हैं। बाहर से कोई सुविख्यात पुरुष आता है, तो उससे पाठशाला का निरीक्षण अवश्य कराते हैं। आनंदी की प्रशंसा से उन्हें वही आनंद मिलता है, जो स्वयं अपनी प्रशंसा से होता है। बाईजी को भी दर्शन से प्रेम है, और सबसे बड़ी बात यह है कि उन्हें गोपीनाथ पर असीम श्रद्धा है। वह हृदय से उनका सम्मान करती हैं। उनके त्याग और निष्काम जाति-भक्ति ने उन्हें वशीभूत कर लिया है। वह मुँह पर तो उनकी बड़ाई नहीं करती, पर रईसों के घरों में बड़े प्रेम से उनका यशगान करती हैं। ऐसे सच्चे सेवक आजकल कहाँ? लोग कीर्ति पर जान देते हैं। जो थोड़ी-बहुत सेवा करते हैं, वह दिखावे के लिए। सच्ची लगन किसी में नहीं। मैं लाला जी को पुरुष नहीं देवता समझती हूँ। कितना सरल, संतोषमय जीवन है! न कोई व्यसन, न विलास। सबेरे से सायंकाल तक दौड़ते रहते हैं। न खाने का कोई समय, न सोने का। उस पर कोई ऐसा नहीं, जो उनके आराम का ध्यान रखे। बेचारे घर गये, जो कुछ किसी ने सामने रख दिया, चुपके से खा लिया, फिर छड़ी उठाई किसी तरफ चल दिए। दूसरी औरत कदापि अपनी पत्नी की भाँति सेवा-सत्कार नहीं कर सकती।
दशहरे के दिन थे। कन्या-पाठशाला में उत्सव मनाने की तैयारियाँ हो रही थीं। एक नाटक खेलने का निश्चय किया गया था। भवन खूब सजाया गया था। शहर के रईसों को निमंत्रण दिये गए थे। यह कहना कठिन है कि किसका उत्साह बढ़ा हुआ था, बाईजी का या लाला गोपीनाथ का। गोपीनाथ सामग्रियाँ एकत्र कर रहे थे, उन्हें अच्छे ढंग से सजाने का भार आनंदी ने लिया था। नाटक भी इन्हीं का रचा था। नित्यप्रति उसका अभ्यास कराती थीं, और स्वयं एक पार्ट ले रखा था।
विजया-दशमी आ गई। दोपहर तक गोपीनाथ फर्श और कुर्सियों का इंतजाम करते रहे। जब एक बज गया और अब भी वह वहाँ से न टले, तो आनंदी ने कहा- लालाजी, आपको भोजन करने को देर हो रही है। अब सब काम हो गया है। जो कुछ बच रहा है मुझपर छोड़ दीजिए।
गोपीनाथ ने कहा- खा लूँगा, मैं ठीक समय पर भोजन का पाबन्द नहीं हूँ। फिर घर तक कौन जाए? घंटों लग जाएँगे। भोजन के उपरान्त आराम करने को जी चाहेगा। शाम हो जाएगी।
आनंदी- भोजन तो मेरे यहाँ तैयार है; ब्राह्मणी ने बनाया है। चलकर खा लीजिए, और यहीं जरा देर आराम भी कर लीजिए।
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