कहानी संग्रह >> प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16 प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग
गोपीनाथ- यहाँ क्या खा लूँ! एक वक्त ना खाऊँगा, तो ऐसी कौन-सी हानि हो जाएगी?
आनंदी- जब भोजन तैयार है, तो उपवास क्यों कीजिएगा?
गोपीनाथ- आप जायँ, आपको अवश्य देर हो रही है। मैं काम में ऐसा भूला कि आपकी सुधि ही न रही।
आनंदी- मैं भी एक जून उपवास कर लूँगी, तो क्या हानि होगी?
गोपीनाथ- नहीं-नहीं इसकी क्या जरूरत? मैं आपसे सच कहता हूँ, मैं बहुधा एक जून ही खाता हूँ।
आनंदी- अच्छा, मैं आपके इनकार का आशय समझ गई। इतनी मोटी बात अब तक मुझे न सूझी।
गोपीनाथ- क्या समझ गईं? मैं छूत-छात नहीं मानता। यह तो आपको मालूम ही है।
आनंदी- इतना जानती हूँ। किंतु जिस कारण आप मेरे यहाँ भोजन करने से इनकार कर रहे हैं, उसके विषय में केवल इतना निवेदन है कि मेरा आपसे केवल स्वामी-सेवक का सम्बन्ध नहीं हैं। आपका मेरा पान-फूल को अस्वीकार करना अपने एक सच्चे भक्त के मर्म को आघात पहुँचाता है। मैं आपको इसी दृष्टि से देखती हूँ।
गोपीनाथ को अब कोई आपत्ति न हो सकी। जाकर भोजन कर लिया। वह जब तक आसन पर बैठे रहे आनंदी बैठी पंखा झलती रही।
इस घटना की लाला गोपीनाथ के मित्रों ने यों आलोचना की- महाशयजी अब तो वहीं (‘वहीं' पर खूब जोर देकर) भोजन भी करते हैं।
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