कहानी संग्रह >> प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16 प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग
'देखूँगा तो मैं जरूर ही, लेकिन तुमसे सीधे-सीधे पूछता हूँ, बतला दो, कौन था?'
हसीना ने कुंजियों का गुच्छा फेंकते हुए कहा, 'और कोई था तो घर ही में न होगा। लो, सब जगह देख आओ। सुई तो है नहीं कि मैंने कहीं छिपा दी हो।'
वह शैतान इन चकमों में न आया। शायद पहले भी ऐसा ही चरका खा चुका था। कुंजियों का गुच्छा उठाकर सबसे पहले मेरी कोठरी के द्वार पर आया और उसके ताले को खोलने की कोशिश करने लगा! गुच्छे में उस ताले की कुंजी न थी। बोला, इस कोठरी की कुंजी कहाँ है? हसीना ने बनावटी ताज्जुब से कहा, 'अरे, तो क्या उसमें कोई छिपा बैठा है? वह तो लकड़ियों से भरी पड़ी है।'
'तुम कुंजी दे दो न।'
'तुम भी कभी-कभी पागलों के-से काम करने लगते हो। अँधेरे में कोई साँप-बिच्छू निकल आये तो। ना भैया, मैं उसकी कुंजी न दूँगी।'
'बला से साँप निकल आयेगा। अच्छा ही हो, निकल आये। इस बेहयाई की जिन्दगी से तो मौत ही अच्छी!'
हसीना ने इधर-उधर तलाश करके कहा, 'न जाने उसकी कुंजी कहाँ रख दी। खयाल नहीं आता।'
'इस कोठरी में तो मैंने और कभी ताला नहीं देखा।'
'मैं तो रोज लगाती हूँ। शायद कभी लगाना भूल गई हूँ, तो नहीं कह सकती।'
'तो तुम कुंजी न दोगी?'
'कहती तो हूँ इस वक्त नहीं मिल रही है।'
'कहे देता हूँ, कच्चा ही खा जाऊँगा।'
अब तक तो मैं किसी तरह जब्त किये खड़ा रहा। बार-बार अपने ऊपर गुस्सा आ रहा था कि यहाँ क्यों आया। न-जाने यह शैतान कैसे पेश आये। कहीं तैश में आकर मार ही न डाले। मेरे हाथों में तो कोई छुरी भी नहीं।
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