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प्रेमंचन्द की कहानियाँ 16

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9777
आईएसबीएन :9781613015148

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सोलहवाँ भाग


बर्नियर : ‘निस्संदेह, भारत के सम्राटों का अधिकांश समय हिन्दू राजाओं को अधीन करने और प्रान्तों के वैमनस्य और उपद्रव शान्त करने में व्यतीत होता था। हजरत अर्श आशियानी ने हालाँकि एक बार कंधार को एक अभियान भेजना चाहा था लेकिन कुछ न कुछ रुकावटों से तंग आकर इरादा छोड़ दिया। अन्तिम रूप से यह कहना आसान नहीं है कि भारत के सम्राट् कंधार से क्यों बेखबर रहे। सम्भव है कि दूरी के विचार अथवा असफलता के भय अथवा भरे पूरे खजाने की गरीबी के कारण ऐसा न कर सके हों।’

मालपेका : ‘मगर क्या वही चिन्ताएँ इस समय भी सामने नहीं हैं। दक्खिन की उलझनें इतनी बढ़ गई हैं कि अब उनको सुलझाना बहुत कठिन है, और यह कहने की आवश्यकता नहीं कि दक्खिन-विजय कंधार-विजय से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। भारत और कंधार के मध्य जो दूरी थी वह तिलमात्र भी कम नहीं हुई। और अब असफलता का भय पहले से भी अधिक है क्योंकि अब ईरान के शासक भी कंधार की सहायता के लिये कटिबद्ध हैं।’

पादरी जोजरेट : ‘ठीक कहा, मगर अब भारत के सिंहासन पर वह बादशाह नहीं है जिसे दूरी या असफलता का भय अपने संकल्प से डिगा सके। पूर्ववर्ती सम्राटों के काल में भारत का साम्राज्य शैशवावस्था में था। अब उसकी जवानी उठान पर है। उस काल में भारत पर हजरत मसीह की कृपा नहीं हुई थी। अल्लाह ताला साहिबे किरान सानी को दीर्घायु करें, उनके पवित्र मस्तक पर तो मसीह ने अपने हाथों से ऐश्वर्य का मुकुट रख दिया है।’

इस प्रभावशाली तर्क पर शहजादा दाराशिकोह के होठों पर क्षीण सी मुस्कराहट दिखाई देने लगी। दो-तीन मिनट विचारमग्न रहकर डाक्टर बर्नियर बोले, ‘महानुभावो! साम्राज्य की नित्यता के लिए आवश्यक है कि प्रतिपक्षी शक्तियाँ उसका लोहा मानें। दूसरे की दृष्टि में महत्त्व कम हो जाना उसके लिए प्राणघातक जहर है। यदि विपक्षियों के मन में उसका आतंक बैठ जाये तो फिर साम्राज्य अटल है। जब तक कि आन्तरिक बीमारियाँ उनकी तबाही का कारण न हों, दक्खिन की उलझनें बढ़ती ही जाती हैं। मरहठों ने उपद्रव फैलाने पर कमर बाँध ली है। जाठों ने भी कुछ सिर उठाया है। बस, यह समय भारतीय साम्राज्य के लिये बहुत ही नाजुक तथा खतरनाक है। इस नाजुक समय में कंधार से बेखबर होना इन उपद्रवियों को शेर बना देगा। यदि साहिबे किरान सानी ने अली मर्दान खाँ को शरण न दी होती और कंधार के लिये दो अभियान कूच न कर चुके होते तो इस समय उस देश से किनारा कर लेने में तनिक भी हानि नहीं थी। मगर जब संसार पर यह खुल गया है कि भारत के सम्राट् कंधार पर अधिकार जमाना चाहते हैं और इस काम के लिए उद्यत हैं तो फिर इस संकल्प से पीछे हटना साम्राज्य के लिए बहुत भयावह होगा। अब तो भारत का यह कथन होना चाहिए कि लड़ेंगे, मरेंगे मगर कंधार को नहीं छोड़ेंगे। यदि इस समय कंधार से हाथ खींच लिया तो मरहठों में स्वाभाविक रूप से यह विचार उत्पन्न होगा कि यदि इसी भाँति उपद्रव मचाते रहें तो हम भी कंधार की भाँति स्वतंत्र हो जाएँगे, दक्खिन के शाहों को हमारी क्षमता का अन्दाजा हो जाएगा। ईरान-नरेश समझेगा कि भारत में अब दम नहीं रहा तो वह कंधार से होता हुआ काबुल तक चला आएगा। और क्या आश्चर्य कि भारत की ओर भी मुँह कर ले, फिर तो काबुल के अफगान सिर उठाए बिना नहीं मानेंगे। संक्षेप में यह कि इस समय कंधार अभियान से मुँह मोड़ना बहुत भयावह है।’

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