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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778
आईएसबीएन :9781613015155

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


तीसरे दिन तैमूर इस्तखर पहुँचा, तो किले का मुहासरा उठ चुका था। किले की तोपों ने उसका स्वागत किया। हबीब ने समझा, तैमूर ईसाईयों को सजा देने आ रहा है। ईसाइयों के हाथ-पांव फूले हुए थे, मगर हबीब मुकाबले के लिए तैयार था। ईसाइयों के स्वप्न की रक्षा में यदि जान भी जाए, तो कोई गम नहीं। इस मुआमले पर किसी तरह का समझौता नहीं हो सकता। तैमूर अगर तलवार से काम लेना चाहता है, तो उसका जवाब तलवार से दिया जाएगा। मगर यह क्या बात है। शाही फौज सफेद झंडा दिखा रही है। तैमूर लड़ने नहीं सुलह करने आया है। उसका स्वागत दूसरी तरह का होगा। ईसाई सरदारों को साथ लिए हबीब किले के बाहर निकला। तैमूर अकेला घोड़े पर सवार चला आ रहा था। हबीब घोड़े से उतरकर आदाब बजा लाया। तैमूर घोड़े से उतर पड़ा और हबीब का माथा चूम लिया और बोला- मैं सब सुन चुका हूँ हबीब। तुमने बहुत अच्छा किया और वही किया जो तुम्हांरे सिवा दूसरा नहीं कर सकता था। मुझे जजिया लेने का या ईसाईयों से मजहबी हक छीनने का कोई मजाज न था। मैं आज दरबार करके इन बातों की तसदीक कर दूँगा और तब मैं एक ऐसी तजवीज बताऊँगा कि जो कई दिन से मेरे जेहन में आ रही है और मुझे उम्‍मीद है कि तुम उसे मंजूर कर लोगे। मंजूर करना पड़ेगा।

हबीब के चेहरे का रंग उड़ गया था। कहीं हकीकत खुल तो नहीं गई। वह क्या तजवीज है, उसके मन में खलबली पड़ गई।

तैमूर ने मूस्ककराकर पूछा- तुम मुझसे लड़ने को तैयार थे।

हबीब ने शरमाते हुए कहा- हक के सामने अमीन तैमूर की भी कोई हकीकत नहीं।

बेशक-बेशक। तुममें फरिश्तों का दिल है, तो शेरों की हिम्मत भी है, लेकिन अफसोस यही है कि तुमने यह गुमान ही क्यों किया कि तैमूर तुम्हातरे फैसले को मंसूख कर सकता है। यह तुम्हारी जात है, जिसने मुझे बतलाया है कि सल्तनत किसी आदमी की जायदाद नहीं बल्कि एक ऐसा दरख्त है, जिसकी हरेक शाख और पत्ती एक-सी खुराक पाती है।

दोनों किले में दाखिल हुए। सूरज डूब चूका था। आन-की-बान में दरबार लग गया और उसमें तैमूर ने ईसाइयों के धार्मिक अधिकारों को स्वीकार किया।

चारों तरफ से आवाज आई- खुदा हमारे शाहंशाह की उम्र दराज करे।

तैमूर ने उसी सिलसिले में कहा- दोस्तों, मैं इस दुआ का हकदार नहीं हूँ। जो चीज मैंने आपसे जबरन ली थी, उसे आपको वापस देकर मैं दुआ का काम नहीं कर रहा हूँ। इससे कहीं ज्यादा मुनासिब यह है कि आप मुझे लानत दें कि मैंने इतने दिनों तक..

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