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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778
आईएसबीएन :9781613015155

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


चारों तरफ से आवाज आई- मरहबा। मरहबा।

दोस्तों उन हकों के साथ-सा‍थ मैं आपकी सल्तनत भी आपको वापस करता हूँ क्योंकि खुदा की निगाह में सभी इन्सान बराबर हैं और किसी कौम या शख्स को दूसरी कौम पर हुकूमत करने का अख्तियार नहीं है। आज से आप अपने बादशाह हैं। मुझे उम्मीद है कि आप भी मुस्लिम आजादी को उसके जायज हकों से महरूम न करेंगे। मगर कभी ऐसा मौका आए कि कोई जाबिर कौम आपकी आजादी छीनने की कोशिश करे, तो तैमूर आपकी मदद करने को हमेशा तैयार रहेगा।

किले में जश्न खत्म हो चुका है। उमरा और हुक्काम रुखसत हो चुके हैं। दीवाने खास में सिर्फ तैमूर और हबीब रह गए हैं। हबीब के मुख पर आज स्मित हास्य की वह छटा है, जो सदैव गंभीरता के नीचे दबी रहती थी। आज उसके कपोलों पर जो लाली, आँखों में जो नशा, अंगों में जो चंचलता है, वह और कभी नजर न आई थी। वह कई बार तैमूर से शोखियां कर चुका है, कई बार हंसी कर चुका है, उसकी युवती चेतना, पद और अधिकार को भूलकर चहकती फिरती है। सहसा तैमूर ने कहा- हबीब, मैंने आज तक तुम्हारी हरेक बात मानी है। अब मैं तुमसे यह तजवीज करता हूँ जिसका मैंने जिक्र किया था, उसे तुम्हें कबूल करना पड़ेगा।

हबीब ने धड़कते हुए हदय से सिर झुकाकर कहा- फरमाइए।

पहले वायदा करो कि तुम कबूल करोगे।

मैं तो आपका गुलाम हूँ।

नहीं तुम मेरे मालिक हो, मेरी जिन्दगी की रोशनी हो, तुमसे मैंने जितना फैज पाया है, उसका अंदाजा नहीं कर सकता। मैंने अब तक सल्तनत को अपनी जिन्दगी की सबसे प्यारी चीज समझा था। इसके लिए मैंने वह सब कुछ किया जो मुझे न करना चाहिए था। अपनों के खून से भी इन हाथों को दागदार किया गैरों के खून से भी। मेरा काम अब खत्म हो चुका। मैंने बुनियाद जमा दी इस पर महल बनाना तुम्हारा काम है। मेरी यही इल्तजा है कि आज से तुम इस बादशाहत के अमीन हो जाओ, मेरी जिन्दगी में भी और मरने के बाद भी।

हबीब ने आकाश में उड़ते हुए कहा- इतना बड़ा बोझ। मेरे कंधे इतने मजबूत नहीं हैं।

तैमूर ने दीन आग्रह के स्वएर में कहा- नहीं मेरे प्यारे दोस्त, मेरी यह इल्तजा माननी पड़ेगी।

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