कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 17 प्रेमचन्द की कहानियाँ 17प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग
होली का दिन
(समय-9 बजे रात्रि। आनंदमोहन तथा दयाशंकर वार्तालाप करते जा रहे हैं)
आनंदमोहन- ''हम लोगों को देर तो नहीं हुई। अभी तो नौ बजे होंगे।''
दयाशंकर- ''नहीं, अभी क्या देर होगी?''
आनंदमोहन- ''वहाँ बहुत इंतजार न कराना, क्योंकि एक तो दिन-भर गली-गली घूमने के पश्चात् मुझमें इंतजार करने की शक्ति ही नहीं, दूसरे ठीक ग्यारह बजे बोर्डिंगहौस का दरवाजा बंद हो जाता है।''
दयाशंकर- ''अजी, चलते-चलते थाली सामने आवेगी। मैंने तो सेवती से पहले ही कह दिया है कि नौ बजे तक सब सामान तैयार रखना।''
आनदमोहन- ''तुम्हारा घर तो अभी दूर है। यहाँ मेरे पैरों में चलने की शक्ति ही नहीं। आओ, कुछ बातचीत करते चलें। भला यह तो बताओ कि पर्दे के संबंध में तुम्हारा क्या विचार है? भाभीजी मेरे सामने आवेंगी या नहीं। क्या मैं उनके चंद्र-मुख का दर्शन कर सकूँगा 7 सच कहो।''
दयाशंकर- ''तुम्हारे और मेरे बीच में तो भाईचारे का संबंध है। यदि सेवती मुँह खोले हुए भी तुम्हारे सम्मुख आ जाए, तो मुझे कोई ग्लानि नहीं, किंतु साधारणत: मैं पर्दे की प्रथा का सहायक और समर्थक हूँ क्योंकि हम लोगों की सामाजिक नीति इतनी पवित्र नहीं है कि कोई स्त्री अपने लज्जा-भाव को चोट पहुँचाए बिना ही अपने घर से बाहर निकले।''
आनंदमोहन- ''मेरे विचार में तो पर्दा ही कुचेष्टाओं का मूल कारण है। पर्दे से स्वभावत: पुरुषों के चित्त में उत्सुकता उत्पन्न होती है और वह भाव कभी तो बोली-ठोली में प्रकट होता' है और कभी नेत्रों के कटाक्षों में।''
दयाशंकर- ''जब तक हम लोग इतने दृढ़-प्रतिज्ञ न हो जाएँ कि सतीत्व-रक्षा के पीछे प्राण भी बलिदान कर दें, तब तक पर्दे की प्रथा का तोड़ना समाज-मार्ग में विष बोना है।''
आनंदमोहन- ''आपके विचार से तो यही सिद्ध होता है कि यूरोप में सतीत्व-रक्षा के लिए रात-दिन रुधिर की नदियाँ बहा करती हैं।''
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