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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778
आईएसबीएन :9781613015155

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


दयाशंकर- ''वहीं इसी बेपर्दगी ने तो सतीत्व-धर्म को निर्मूल कर दिया है। अभी मैंने किसी समाचार-पत्र में पढ़ा था कि एक स्त्री ने किसी पुरुष पर इस प्रकार का अभियोग चलाया था कि उसने मुझे निर्भीकतापूर्वक कुदृष्टि से घूरा था; किंतु विचारक ने उस स्त्री को नख-शिख से देख यह कहकर मुकदमा खारिज कर. दिया कि प्रत्येक मनुष्य को अधिकार है कि हाट-बाट में नौजवान स्त्री को घूरकर देखे। मुझे तो यह अभियोग और यह फ़ैसला सर्वथा हास्यास्पद जान पडते हैं और किसी भी समाज को निंदित करनेवाले हैं।''

आनंदमोहन- ''इस विषय को छोड़ो। यह तो बताओ कि इस समय क्या-क्या खिलाओगे। मित्र नहीं, तो मित्र की चर्चा ही हो।''

दयाशंकर- ''यह तो सेवती की पाक-कला-कुशलता पर निर्भर हे। पूरियाँ और कचौरियाँ तो होंगी ही। यथासंभव खूब खरी भी होंगी। यथाशक्ति खस्ते और समोसे भी आवेंगे। खीर आदि के बारे में भविष्यवाणी की जा सकती है। आलू-गोभी की शोरवेदार तरकारी और मटर-दालमोठ भी मिलेंगे। फ़ीरिनी के मिष्ठान्न भी कह आया था। गूलर के कोफ्ते और आलू के कबाब, दोनों सेवती खूब पकाती है। इनके सिवा दही-बड़े और चटनी-अचार की चर्चा तो व्यर्थ ही है। हाँ, शायद किशमिश का रायता भी मिले, जिसमें केसर की सुगंध आती होगी।''

आनंदमोहन- ''मित्र, मेरे मुँह में तो पानी भर आया। तुम्हारी बातों ने तो मेरे पैरों में जान डाल दी। शायद पर होते, तो उड़कर पहुँच जाता।''

दयाशंकर- ''लो, अब आ ही जाते हैं। यह तंबाकूवाले की दुकान है, इसके बाद चौथा मकान अपना ही है।''

आनंदमोहन- ''मेरे साथ बैठकर एक ही थाली में खाना। कहीं ऐसा न हो कि अधिक खाने के लिए मुझे भाभीजी के सामने लज्जित होना पड़े।''

दयाशंकर- ''इससे तुम निश्शंक रहो। उन्हें मिताहारी आदमी से चिढ़ है। वह कहती हैं, 'जो खावेगा ही नहीं, वह दुनिया में काम क्या करेगा।' आज शायद तुम्हारी बदौलत मुझे भी काम करनेवालों की पंक्ति में स्थान मिल जाए। कम-से-कम कोशिश तो ऐसी ही करना।''

आनंदमोहन- ''भई, यथाशक्ति चेष्टा करूँगा। शायद तुम्हें ही प्रधान-पद मिल जाए।''

दयाशंकर- ''यह जो आ गए। देखना, सीढ़ियों पर अँधेरा है। शायद चिराग जलाना भूल गई।''

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